SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथ्यों का यथार्थ रूप में प्रस्तुतीकरण उसकी अपनी विशेषता है। वस्तुतः, तथ्यात्मक विविधताओं एवं अन्तर्विरोधों के कारण अर्द्धमागधी आगम साहित्य के ग्रन्थों के काल-क्रम का निर्धारण भी सहज हो जाता है। (ब) आगमों में जैनसंघ के इतिहास का प्रामाणिक रूप . यदि हम आगमों का समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन करें, तो हमें यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन परम्परा के आचार एवं विचार में देश-कालगत परिस्थितियों के कारण कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए, इसको जानने का आधार अर्द्धमागधी आगम ही हैं, क्योंकि इन परिवर्तनों को समझने के लिये उनमें उन तथ्यों के विकास क्रम को खोजा जा सकता है। उदाहरण के रूप में, जैनधर्म में साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढ़-मूल होता गया, इसकी जानकारी ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और भगवती के पन्द्रहवें शतक के समीक्षात्मक अध्ययन से मिल जाती है। ऋषिभाषित में नारद, मंखलिगोशाल, असितदेवल, नारायण, याज्ञवल्क्य, बाहुक आदि ऋषियों को अर्हत् ऋषि कहकर सम्मानित किया गया है। उत्तराध्ययन में भी कंपिल, नमि, करकण्डु, नग्गति, गर्दभाली, संजय आदि का सम्मानपूर्वक स्मरण किया गया और सूत्रकृतांग में इनमें से कुछ को आचारभेद के बावजूद भी परम्परा-सम्मत माना गया, किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में नारद की और भगवती के पन्द्रहवें शतक में मंखली गोशाल की समालोचना भी की गई। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जैन परम्परा में अन्य परम्परा के प्रति उदारता का भाव कैसे परिवर्तित होता गया और साम्प्रदायिक अभिनिवेश कैसे दृढमूल होते गये, इसका यथार्थ चित्रण उनमें उपलब्ध हो जाता है। इसी प्रकार आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध, आचारसूत्र, दशवैकालिक, निशीथ आदि छेदसूत्र तथा उनके भाष्य और चूर्णियों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैनाचार में कालक्रम में क्या-क्या परिवर्तन हुए हैं। इसी प्रकार, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा आदि के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि पार्श्वपत्यों का महावीर के संघ पर क्या प्रभाव पड़ा और दोनों के बीच सम्बन्धों में कैसे परिवर्तन होता गया। इसी प्रकार के अनेक प्रश्न, जिनके कारण आज का जैन समाज साम्प्रदायिक कटघरों में बन्द है, अर्द्धमागधी आगमों के निष्पक्ष अध्ययन के माध्यम से सुलझाये जा सकते हैं। शौरसेनी प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004262
Book TitlePrakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy