________________ कुछ ग्रन्थों के रचनाकाल की उत्तर सीमा ई.पू. पाँचवी-चौथी शताब्दी सिद्ध होती है, जो कि इस साहित्य की प्राचीनता को प्रमाणित करती है। फिर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि सम्पूर्ण आगम साहित्य न तो एक व्यक्ति की रचना है और न एक काल की। यह सत्य है कि इस साहित्य को अन्तिम रूप वीरनिर्वाण संवत् 980 में वलभी में सम्पन्न हुई वाचना में प्राप्त हुआ, किन्तु इस आधार पर हमारे कुछ विद्वानमित्र यह गलत निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि आगम साहित्य ईसवी सन् की पांचवी शताब्दी की रचना है। यदि आगम ईसा की पांचवी शताब्दी की रचना है, तो वलभी की इस अन्तिम वाचना के पूर्व भी वलभी , मथुरा, खण्डगिरि और पाटलीपुत्र में जो वाचनाएं हुई थीं, उनमें संकलित साहित्य कौन-सा था ? उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि वलभी में आगमों को संकलित, सुव्यवस्थित और सम्पादित करके लिपिबद्ध (पुस्तकारूढ़) किया गया था, अतः यह किसी भी स्थिति में उनका रचनाकाल नहीं माना जा सकता है। संकलन और सम्पादन का अर्थ रचना नहीं है। पुनः, आगमों में विषय-वस्तु, भाषा और शैली की जो विविधता और भिन्नता परिलक्षित होती है, वह स्पष्टतया इस तथ्य की प्रमाण है कि संकलन और सम्पादन के समय उनकी मौलिकता को यथावत रखने का प्रयत्न किया गया है, अन्यथा आज उनका प्राचीन स्वरूप समाप्त ही हो जाता और आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा और शैली भी परिवर्तित हो जाती तथा उसके उपधानश्रुत नामक नौवें अध्ययन में वर्णित महावीर का जीवनवृत्त अलौकिकता एवं अतिशयों से युक्त बन जाता। यद्यपि यह सत्य है कि आगमों की विषय-वस्तु में कुछ प्रक्षिप्त अंश हैं, किन्तु प्रथम तो ऐसे प्रक्षेप बहुत ही कम हैं और दूसरे उन्हें स्पष्ट रूप से पहचाना भी जा सकता है। अतः इस आधार पर सम्पूर्ण आगम साहित्य को परवर्ती मान लेना सबसे बड़ी भ्रान्ति होगी। आगम-साहित्य पर कभी-कभी महाराष्ट्री प्राकृत के प्रभाव को देखकर भी उसकी प्राचीनता पर संदेह किया जाता है, किन्तु प्राचीन हस्तप्रतो के आधार पर पाठों के तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनेक प्राचीन हस्तप्रतों में आज भी उनके 'त' श्रुतिप्रधान अर्द्धमागधी स्वरूप सुरक्षित हैं। आचारांग के प्रकाशित संस्करणों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट हो जाता है प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org