________________ - स्वर्गवास उपाध्याय यशोविजय का कालधर्म डभोई में हुआ था, यह निर्विवाद सत्य है, परन्तु इनके स्वर्गवास का निश्चित माह और तिथि जानने को नहीं मिलती है। डभोई के गुरुमंदिर की पादुका के लेख के आधार पर पहले इनकी स्वर्गवास तिथि संवत् 1745 मार्गशीर्ष शुक्ला 11 (मौन एकादशी) मानते थे। परन्तु पादुका में लिखी हुई वर्ष तिथि उपाध्याय के स्वर्गवास की नहीं, पादुका की प्रतिष्ठा की है। 'सुजसवेली भाष' के आधार पर यशोविजय का संवत् 1743 का चातुर्मास डभोई में हुआ और वहीं अनशन करके उन्होंने अपनी काया को छोड़ा, इसमें भी निश्चित माह और तिथि नहीं बताई गई है। जैन साधुओं का चातुर्मास आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी से कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी तक रहता है। अब इनका स्वर्गवास चातुर्मास के दौरान ही हुआ अथवा चातुर्मास के बाद, यह ज्ञात नहीं होता है। उसने सब से अंत में चातुर्मास के समय रची प्रतिक्रमण हेतु गर्भित सज्जय और 11 अंग की सज्जाय-इन दोनों कृतियों में रचनावर्षी युग-युग मुनि विद्युत्सराई-इस प्रकार सूचित है। इसमें यदि युग यानी 'चार' माना जाए तो 1744 होता है और युग यानी दो लेते हैं तो संवत् 1722 होता है परन्तु यहां संवत् 1744 सुसंगत नहीं लगता है। इसका कारण यह है कि 1743 डभोई का चातुर्मास इनका अंतिम चातुर्मास था। जब तक दूसरे प्रमाण न मिले तब तक संवत् 1743 डभोई में उपाध्याय यशोविजय का स्वर्गवास हुआ था, यह मानना अधिक तर्कसंगत लगता है। स्तूप की महिमा-दो पादुका . डभोई में वि.सं. 1743 में अन्तिम चातुर्मास किया। यहीं अनशन करके उन्होंने अपने देह को छोड़ा। वहाँ से थोड़े दूर सीत तलाई के किनारे पर आये हुए उद्यान में जहाँ अग्निसंस्कार किया था, वहाँ उनके __स्मारक के रूप में तेजोमय स्तूप बनवाया। उपाध्याय न्यायशास्त्र में इतने पारंगत थे कि आज भी उस स्तूप में से उनके स्वर्गवास के दिन न्याय की ध्वनि निकलती है, ऐसा 'सुजसवेली भाष'36 (ढाल-4, कड़ी-5, 6) में दिखाया है। आज भी डभोई में जो स्तूप है, उसमें उनकी पवित्र पादुका स्थापित है। उसके ऊपर वि.सं. 1745 की मिगसर सुदी 11 का लेख है। इस लेख में कल्याणविजय, लाभ विजय, जीतविजय एवं उनके सहोदर नयविजय एवं यशोविजय का उल्लेख है। विशेष में इन पाँचों को गणि की पदवी से सुशोभित किया। यह पादुका यशोविजय के एक शिष्य ने बनवाकर अहमदाबाद में प्रतिष्ठित की। वही पादुका डभोई में प्रतिष्ठित हुई प्रतीत होती है। यशोविजय के शिष्य हेमविजय एवं तत्त्वविजय ने मिलकर अपने गुरु की पादुका 'शत्रुजयगिरि' पर वि.सं. 1745 फागुण सुदी पंचमी में गुरुवार के दिन स्थापित की हो, ऐसा लगता है। व्यक्तित्व के विशिष्ट गुण | उत्कृष्ट गुरु भक्ति-गुरु-शिष्य का वात्सल्य एवं भक्ति उपाध्याय यशोविजय के व्यक्तित्व में गुरुभक्ति, तीर्थभक्ति, श्रुतभक्ति, संघभक्ति, शासन प्रीति, अध्यात्म रसिकता, धीर-गम्भीरता, उदारता, त्याग, वैराग्य, सरलता, लघुता, गुणानुराग इत्यादि अनेक गुणों के दर्शन होते हैं। 11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org