________________ उपाध्यायजी ने जैन तर्कभाषा में किया है। न्यायशास्त्र के प्रमुख तीन अंग हैं-प्रमाण, प्रमेय, प्रमीति। प्रमाण यथार्थ ज्ञान, प्रमेय-जिनके द्वारा प्रमीति-फल, प्रमाता-आत्मा-इनका संक्षिप्त विवरण किया गया है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चार निक्षेपों को विवरण करके सात नयों के साथ तुलना भी की गई है एवं प्रमाण की विशिष्टताएँ स्पष्ट रूप से समझाने का प्रयास किया गया है। उपाध्याय यशोविजय ने पांचवे अध्याय में अनेकान्तवाद एवं नय के बारे में प्रकाश डाला है। जो एकान्त के विरुद्ध आवाज उठाता है, वह अनेकान्त है। सर्वदृष्टि से संतुलित शुद्ध ऐसा दृष्टिकोण दर्शित करना यह अनेकान्त का उद्देश्य है। इसमें न तो हठधर्मिता है, न कदाग्रहता है, न किसी प्रकार की विसंगतियां हैं। एक ऐसी विशुद्ध धारा सर्वदृष्टि से सुमान्य है, वह है अनेकान्त दृष्टिकीण। अनेकान्त जैन दर्शन का हृदय है। समस्त जैन वाङ्मय उसी के आधार पर वर्णित है। उसके बिना जैन दर्शन को समझ पाना. दुष्कर है। अनेकान्त दृष्टि एक ऐसी दृष्टि है, जो वस्तु तत्त्व को उसके समग्र स्वरूप के साथ प्रस्तुत करती है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु बहुआयामी है। उसमें परस्पर विरोधी अनेक गुणधर्म हैं। हम अपनी एकान्त दृष्टि से वस्तु का समग्र बोध नहीं कर सकते। सम्पूर्ण बोध के लिए समग्र दृष्टि अपनाने की जरूरत है। वह अनेकान्त दृष्टि से ही संभव है। अनेकान्त दर्शन बहुत व्यापक है। इसके बिना लोक-व्यवहार भी नहीं चल सकता है। समस्त व्यवहार और विचार इसी अनेकान्त की सुदृढ़ भूमि पर ही टिका है। अतः उनके स्वरूप को जान लेना भी आवश्यक है। अनेकान्त की महत्ता को बताते हुए उपाध्यायजी ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है यत्र सर्वत्र समता, नयेषु तनयेस्विप। तस्यानेकान्त वादस्य, कव न्यूनाधिक शेमुषी।। अर्थात् जैसे माता को अपने बच्चों के प्रति समान स्नेह होता है, ठीक वैसे ही अनेकान्तवाद को सब नयों के प्रति समान दृष्टि होती है। उस अनेकान्तवादी को एक नय में हीनता की बुद्धि और अन्य नय के प्रति उच्चता की बुद्धि कैसे होगी? . जैनदर्शन ने परम सत्य को समझने/समझाने, निरूपित करने के लिए अनेकान्तवाद व स्याद्वाद सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। अनेकान्तवाद वस्तु परस्पर विरुद्ध धर्मों की अविरोधपूर्ण स्थिति का तथा उसकी अनन्तधर्मात्मकता का निरूपण करता है। स्याद्वाद सीमित ज्ञानधारी प्राणियों के लिए उक्त अनेकान्तमकता को व्यक्त करने की ऐसी पद्धति निर्धारित करता है, जिसमें असत्यता, एकांगिता एवं दुराग्रह आदि दोषों से बचा जा सकता है। यद्यपि सभी दर्शनों में अनेकान्त की दृष्टि विद्यमान है, क्योंकि उसके बिना वस्तु की समीचीन व्यवस्था नहीं बन सकती। अनेकान्त सहिष्णुता का दर्शन है। जीवन में अनेक विरोधी प्रश्न आते हैं। उनका समाधान अनेकान्त में खोजा जा सकता है। मनुष्य अनेकान्त को समझे और इसके अनुरूप आचरण करे तो युगीन समस्याओं का समाधान आ सकता है। जैन दर्शन में इस सिद्धान्त का व्यापक रूप से अपने ग्रंथों में उपयोग किया गया है। अतः कह सकते हैं कि जैन दर्शन का आधार अनेकान्तवाद है। वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, यह महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है। जैन दर्शन का यह महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है कि एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं। अनेकान्त सिद्धान्त के उत्थान का आधार एक ही वस्तु में युगपत् विरोधी धर्मों के सहावस्थान की स्वीकृति है। वस्तु का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है। यदि वस्तु विरोधी धर्मों की समन्विता 575 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org