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________________ कामराग और स्नेहराग-ये दोनों सरलता से मिटाए जा सकते हैं किन्तु दृष्टिराग अर्थात् विचारों के प्रति अनुरक्ति को मिटा पाना सहज सरल नहीं है। दृष्टि का अनुराग भयंकर बंधन है। जिन्होंने घर-बार छोड़ दिया, जिन्होंने परिवार का स्नेह तोड़ दिया, वे सब कुछ छोड़ने पर भी विचारों के अनुराग को नहीं तोड़ पाए। विचारों के प्रति तटस्थ होना सहज नहीं है। अनेकान्त के बिना तटस्थता नहीं आती है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं माध्यस्थयसहितं हयेयकपदज्ञानमपि प्रभा। शास्त्रकोटिवृथ्थैवान्या तथा चोक्तं महात्मना।।१० माध्यस्थ भाव के रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा करोड़ों शास्त्र व्यर्थ हैं, क्योंकि जहाँ आग्रह बुद्धि होती है, वहाँ विपक्ष में निहीत सत्य का दर्शन सम्भव नहीं होता है। उपाध याय यशोविजय ने ज्ञानसार में कहा है वांदाश्य प्रतिवादाश्य वदन्तो निश्चितास्तथा। तत्वान्त नैव गच्छन्ति तिलपीलक वदगतौ।।। अर्थात् एकांगी दृष्टिकोण रखकर वाद और प्रतिवाद करने वाले तिल को पील रहे घानी के उस बैल के समान है, जो सुबह से शाम तक सतत चलने पर भी एक कदम भी आगे नहीं बढ़ता है। वादी-प्रतिवादी अपने पक्ष में कदाग्रह रखने के कारण तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि वस्तुतः शाश्वतवाद, उच्छेदवाद, नित्यवाद, अनित्यवाद, भेदवाद, अभेदवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद, हेतुवाद, अहेतुवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद आदि जितने भी दार्शनिक मत-मतान्तर हैं, वे सभी परम सत्ता के विभिन्न पहलुओं से लिये गए चित्र हैं और अपेक्षित रूप से सत्य हैं। द्रव्यदृष्टि और पर्यायदृष्टि के आधार पर इन विरोधी सिद्धान्तों में समन्वय किया जा सकता है, अतः एक सच्चा स्याद्वादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं करता है। वह सभी दर्शनों का आराधक होता है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं तेन स्यादवादमालमूव्य सर्वदर्शनतुल्यताम्। मोक्षोदेशाविशेषण यः पश्यति स शास्त्रवित् / / अर्थात् स्याद्वाद का आश्रय लेकर मोक्ष का उद्देश्य समान होने की अपेक्षा से सभी दर्शनों में जो साधन समानता को देखता है, वही शास्त्र का ज्ञाता है। आचार्य हेमचन्द्र ने महावीरस्तोत्र में कहा है-संसार के बीज को अंकुरित करने वाले राग और द्वेष-ये दोनों जिसमें समाप्त हो चुके हैं, उसका नाम चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हो, महादेव हो, उन सबको मेरा नमस्कार है। ये बातें अनेकान्त के आलोक में कही जा सकती हैं। सत्य का प्रकाश केवल अनाग्रही को ही प्राप्त हो सकता है। आचार्य हरिभद्रसूरि के जीवन में भी अनेकान्त फलित था। उन्होंने कहा पक्षपातो न मे वीरो, न द्वेषः कपिलादिषु। युक्तिमद वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रहः।।5 559 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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