SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 640
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अचिंत्य ही है और चिंत्य ही है। त्रिपुरातापिनी में कहा गया है-“अक्षरमहंक्षरमहं"135-मैं अविनाशी हूँ, मैं विनाशी हूँ। तेजोबिन्दू उपनिषद् में बताया गया है-द्वैताद्वैतस्वरूपात्मा द्वैताद्वैतविवर्जित। अर्थात् आत्मा द्वैताद्वैत स्वरूप है और द्वैताद्वैत रहित है। भस्मजाबाल उपनिषद् का वचन है-“आत्मा चक्षुरहित होने पर भी विश्वव्यापी चक्षुवाली है, कर्णरहित होने पर भी सर्वव्यापी कर्णमय है, पैररहित होने पर भी लोकव्यापी है, हाथरहित होने पर भी चारों तरफ है।"137 इन सभी वेद एवं उपनिषद् वाक्यों की संगति अनेकान्त का आश्रय लिए बिना सम्भव नहीं है। यदि भारतीय दर्शनों के मूल ग्रंथों और उनकी टीकाओं का सम्यक् रूप में अध्ययन किया जाए तो ऐसे अनेक वाक्य हमें दिखाई देंगे, जो उन दर्शनों की पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकान्तदृष्टि को स्पष्ट करते हैं। अनेकान्त एक अनुभूयात्मक सत्य है, इसे नकारा नहीं जा सकता है। हरिभद्र के शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका में उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि अन्य मतावलम्बियों के मत स्याद्वाद की अपेक्षा एक-एक नय के प्रतिपादक हैं। अतः वे जैन शासन के लिए क्लेशकारक नहीं हो सकते। क्या जटिल ज्वाला की अग्नि से निकले, इधर-उधर फैले हुए अग्नि के छोटे-छोटे कण उस अग्नि का पराभव कर सकते हैं? अर्थात् नहीं। आगे ये कहते हैं कि चाहे अपने विष दंश से सर्वशीघ्रता . से गरुड़ पर विजय प्राप्त कर ले, चाहे हाथी हठवश सिंह को अपने गले में बांध ले एवं अंधकार का समूह सूर्य के अस्त होने का भान कराए, किन्तु स्याद्वाद के विरोधी भी स्याद्वाद का अपलाप नहीं कर सकते हैं। कोई भी नयवाद विरोधी कैसे हो सकते हैं, वह तो उसी का अंश है।।58 आग्रहमुक्ति के लिए अनेकान्तदृष्टि की अपरिहार्यता '.. सत्य का आधार अनाग्रह है और असत्य का आधार आग्रह। आग्रह के अनेक प्रकार हैं-साम्प्रदायिक आग्रह, पारिवारिक और सामाजिक आग्रह, जातीय और राष्ट्रीय आग्रह। आग्रह और एकान्त के रोगाणुओं से फैली हुई विभिन्न बीमारियों की एक ही औषधि है और वह है-अनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद तीसरा नेत्र है, जिसके खुलते ही राग-द्वेष, दुराग्रह, विलय हो जाते हैं और तटस्थता की भावना जागृत होती है। जब तक किसी बात का आग्रह है, तब तक ही झगड़ा है, अशान्ति है। अनेकान्तवाद यही सीखाता है कि पकड़ना नहीं, अकड़ना नहीं और झगड़ना नहीं। ___एक विचारक एक दृष्टिकोण को पकड़कर उसका पक्ष करता है, समर्थन करता है, उसके प्रति राग रखता है। दूसरा विचारक दूसरे दृष्टिकोण का पक्ष करता है, समर्थन करता है। पहला विचारक दूसरे विचारक का खण्डन करता है। दूसरा विचारक पहले का खण्डन करता है। इस तरह अपने विचारों की पकड़ मजबूत होती जाती है, आपस में द्वेष बढ़ता जाता है, लेकिन जैसे ही अनेकान्त का बीज हृदय में प्रस्फुटित होता है, वैसे ही अपना विचार छूट जाता है, पराया विचार भी छूट जाता है और केवल सच्चाई रह जाती है, व्यक्ति पूर्ण तटस्थ हो जाता है। आज जो साम्प्रदायिक झगड़े बढ़ते जा रहे हैं और मतभेद के साथ-साथ मनभेद भी हो रहे हैं, उसका एक कारण साम्प्रदायिक आग्रह भी है। आचार्य हेमचन्द्र ने वीतराग स्तोत्र में एक बहुत मार्मिक बात कही है कि कामरागस्नेहरागौ द्वेषत्कर निवारणौ। दृष्टि रागस्तु पापीयान दुरुच्छेद सतामपि।।139 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy