________________ संक्षेप में हम यह कहते हैं कि सभी दार्शनिकों ने भिन्न-भिन्न प्रमाणों की अवधारणा स्वीकार की है, जैसे चार्वाक-प्रत्यक्ष बौद्ध और वैशेषिक-प्रत्यक्ष, अनुमान सांख्य-प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम नैयायिक-प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान मीमांसक-कुमारिल भट्ट-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापति प्रभाकर मिश्र-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापति एवं अभाव को प्रमाण मानते हैं। जैन दर्शन प्रत्यक्ष और परोक्ष-इन दो को ही प्रमाण मानते हैं। प्रत्यक्ष-जिसमें किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती और जो इन्द्रियो प्रतिभास होता है, वह प्रत्यक्ष है। परोक्ष-जिसमें दूसरे प्रमाणों की अपेक्षा रहती है, वह परोक्ष है। इनके अंतर्गत पांच भेद को मानते हैं। इस तरह सभी दार्शनिकों के मत की अवधारणा बताई गई है। उपाध्याय यशोविजय दो भेद ही मानते हैं-प्रत्यक्ष और प्रमाण।” तथा अन्य द्वारा माने गये तीन, चार आदि प्रमाणों का इन दो में ही / अन्तर्भाव स्वीकारते हैं। परवादी प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान अर्थापति, अभाव, संभव, ऐतिध्य, प्रातिभयुक्ति और अनुपलब्धि आदि अनेक प्रमाण मानते हैं। उनको इन्हीं प्रत्यक्ष और परोक्ष के अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। जो विचार करने पर भी मीमांसक के द्वारा माने गये अभाव प्रमाण की तरह प्रमाण सिद्ध न हो तो उनके अन्तर्भाव या बहिर्भाव की चर्चा ही निरर्थक है, क्योंकि ऐसे ज्ञान तो अप्रमाण ही होंगे। अतः उसकी उपेक्षा ही करनी चाहिए। जैन तर्कभाषा उपाध्यायजी रचित दार्शनिक ग्रंथ में अविसंवादी ज्ञान को परोक्ष कहकर उनमें पांच भेद किये हैं-1. स्मृति, 2. प्रत्यभिज्ञा, 3. तर्क, 4. अनुमान, 5. आगम। सर्वज्ञ के सन्दर्भ में सर्वज्ञता स्वयं सिद्ध है। शास्त्रीय प्रकरणों में से परम चर्चित है। पूर्व मीमांसाकार कुमारिल भट्ट के अनुसार जैसे मनुष्यता में सर्वज्ञता का समुदाय संभव नहीं है। कोई मनुष्य सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता। अतः सर्वज्ञता जैन दर्शन की एक मौलिक मान्यता है, जो शास्त्रों में सिद्ध है, प्रसिद्ध है और स्वयं सर्वज्ञ तीर्थंकर परमात्मा है। किसी अटल श्रद्धा श्रमण वाङ्मय में प्रचलित है और इस विषय की प्ररूपणाएँ विभिन्न तर्कों का सामना करती हुई प्रत्युत्तर देती रही है। इन उत्तरदायित्व को निभाने में निष्णात हरिभद्र सूरि की तरह उपाध्याय यशोविजय अभिनन्दीय हैं। इन्होंने परमात्मप्रकाश, प्रतिमाशतक आदि ग्रंथ की रचना कर सर्वज्ञता को सभी दृष्टि से श्रद्धेय किया है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मोपनिषद् में कहा है 547 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org