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________________ जैमिनी मुनि ने प्रत्यक्ष अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापति और आगम-इन छः प्रमाणों को माना है। प्रभाकर मिश्र अभाव को प्रत्यक्ष के द्वारा ग्राह्य मानकर अर्थापति पर्यन्त पाँच ही प्रमाण स्वीकार करते हैं। कुमारिल भट्ट अभाव को भी प्रमाण मानते हैं। इनके मत में छह ही प्रमाण हैं। प्रत्यक्ष-विद्यमान पदार्थों से इन्द्रियों का सन्निकर्ष होने पर आत्मा को जो बुद्धि उत्पन्न होती है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। जैमिनी का प्रत्यक्ष सूत्र यह है-सत्संप्रयोगे सति पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धि जन्म तत्प्रत्यक्षम् / विद्यमान वस्तु से इन्द्रियों का सम्बन्ध होने पर पुरुष को जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अनुमान-लिंग से उत्पन्न होने वाले लौंगिक ज्ञान को अनुमान कहते हैं। उपमान-प्रसिद्ध अर्थ की सदृश्यता से अप्रसिद्ध अर्थ की सिद्धि करना उपमान है। अर्थापति-दृष्ट पदार्थ की अनुपपति के बल से अदृष्ट अर्थ की कल्पना को अर्थापति कहते हैं दृष्टार्थानुपपत्था नु कस्यायर्थस्य कल्पना। क्रियते यदबलेन सर्वथापतिरुदास्ता।।" प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणों से प्रसिद्ध अर्थ के अविनाभाव से किसी अन्य अदृष्ट-परोक्ष की कल्पना जिस ज्ञान के बल पर की जाए, वह अर्थापति है। अर्थापति छहः प्रकार से होती है। अभाव-वस्तु की सत्ता के ग्राहक प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण जिस वस्तु में प्रवृत्ति नहीं करते, उसमें अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है प्रमाण पग्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायतो। वस्तु सतावबोधार्थ तत्राभाव प्रमाणता।। कहा भी है कि प्रमाणों के अभाव को अभाव प्रमाण कहते हैं। यह नास्तिक नहीं है, इस अर्थ की सिद्धि करता है। इसे अभाव को जानने के लिए किसी प्रकार के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं होती। कोई आचार्य अभाव प्रमाण को तीन रूप से मानते हैं-प्रमाण पंचक का अभाव, जिसका निषेध करना है उस पदार्थ के आधारभूत पदार्थ का ज्ञान, आत्मा का विषय ज्ञान रूप से परिणत ही न होना। चार्वाकदर्शन चार्वाक दर्शन मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है, उसका मत इस प्रकार है एतानेव लोकोऽयं यावनिन्द्रिय गोचरः। भद्रे वृकपदंपश्य यदिवदन्त्य बहश्रुताः / / जितना आँखों से दिखाई देता है, इन्द्रियों से गृहित होता है, उतना ही लोक है। जो मूर्ख लोग अनुमान की चर्चा करते हैं, उन्हें भेड़िये के पैर के कृत्रिम चिन्हों से उसकी व्यर्थता बता देनी चाहिए। चार्वाक परलोक, स्वर्ग, नर्क, मोक्ष आदि को नहीं मानते हैं। पाँच प्रकार की इन्द्रियों के विषय को छोड़कर संसार में अन्य किसी अतीन्द्रिय पदार्थ का सद्भाव नहीं है। 546 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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