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________________ जैसे-जैसे पूर्वकृत कर्म का फल निधान में स्थित धन की भांति प्राप्त होता है, वैसे-वैसे उन कर्म का यह फल है, ऐसा सूचित करने वाली भिन्न-भिन्न बुद्धि मानो हाथ में दीपक रखकर आई हो, वैसी प्रवृत्त होती है अर्थात् बुद्धि उसी प्रकार उत्पन्न होती है कि जीव को यह अमुक कर्म का फल ऐसा है, यह स्पष्ट दिखाती है, कारण कि बुद्धि कर्म के अनुसार ही होती है। नैयायिक का कथन है कि कर्म अर्थात् पुण्य-पाप आत्मा के विशेष गुण हैं। कर्मफल का स्वरूप अत्युन्त रोहणांचल पर्वत के शिखर से गिरना, विषयुक्त अन्न खाकर संतोष धारण करना, यह जैसे अनर्थ के लिए होते हैं, वैसे ही कर्मफल भी आत्मा के लिए अनर्थकारी होते हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र के द्वारा कर्मों के क्षय के लिए प्रयल करना चाहिए।" अध्यात्मसार' में उपाध्याय यशोविजय ने भी कहा है-केवलज्ञान योगनिरोध और सभी कर्मों का नाश तथा सिद्धशिला में वास होता है तब परमात्मा व्यक्त होता है अर्थात् कर्मों के क्षय किये बिना, कर्मों के आवरणों से हटाये बिना मुक्ति संभव नहीं है। कर्म मूर्त अथवा अमूर्त यह प्रधानरूप कर्म कि जिसे अपर दर्शनवादी भिन्न-भिन्न विशेषणों का उपचार करके एक-दूसरे से अलग नाम देते हैं, जैसे कि कुछ कर्मों को मूर्त कहते हैं तो कुछ को अमूर्त कहते हैं। यह स्वदर्शन का ही आग्रह है। फिर भी कर्म को संसार परिभ्रमण का कारण सभी दर्शनकार स्वीकारते हैं। उसमें जो भेद करते हैं, वह विशेष प्रकार के ज्ञानाभाव के कारण ही, परन्तु बुद्धिमान को जिस प्रकार देवता विशेष के नामों में भेद होने पर भी अभेद दिखता है, उसी प्रकार कर्म विशेष में नामभेद होने पर भी संसार का हेतु कर्म वासना, पाश प्रकृति वगैरह के नाम होने पर भी परमार्थ रूप से भेद नहीं होने से भेद मानना यह अवास्तविक है, क्योंकि कर्म मूर्त हो अथवा अमूर्त दोनों प्रकार के कर्म को दूर करना ही योग्य है। उसको दूर करके परम पद मोक्ष साधना करनी है। विभिन्न दर्शनों में कर्म ___ चार्वाक के अतिरिक्त सभी भारतीय चिन्तकों ने कर्म को कहीं-न-कहीं रूप में स्वीकार किया है। कर्म के सिद्धान्त के बिना पुनर्जन्म की व्यवस्था ही नहीं की जा सकती है। कर्म की कतिपय अवधारणाओं के संबंध में उनमें परस्पर मतैक्य है तथा उनकी अवधारणाओं के सन्दर्भ में मतभेद भी हैं। जैन परम्परा में जिस अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है, उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य . भारतीय दर्शनों में माया, अविद्या, अपूर्व, वासना, आशय, अदृष्ट, संस्कार, देव, भाग्य आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदान्त दर्शन में माया एवं अविद्या, मीमांसा दर्शन में अपूर्व नैयायिक, वैशेषिक में अदृष्ट, सांख्य में आशय एवं बौद्ध दर्शनों में कर्म एवं वासना शब्द का प्रयोग कर्म के अर्थ में हुआ है। देव, भाग्य, पुण्य, पाप आदि ऐसे अनेक शब्द हैं, जिनका प्रयोग सामान्य रूप से सभी दर्शनों में हुआ है।" सभी भारतीय दर्शनिकों का मत अंत में कर्मों के क्षय करके मोक्ष जाना ही है। 540 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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