________________ सुख प्राप्ति होने की आशा नहीं होगी तो उसके लिए कोई भी विवेकी पुरुष प्रयत्नशील न होगा। इसलिए मोक्ष में सुख का अभाव होने पर उसके लिए विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति की अनुपपत्ति ही मोक्ष में सुख होता है "इस बात में प्राण है।"65 मोक्ष हमारा चरम लक्ष्य का नाम है, जहाँ से फिर आवागमन नहीं होता है। इसे सिद्धि नाम से भी सम्बोधित किया गया है। भगवतगीता में इसके लिए सम् उपसर्ग के साथ सिद्धि शब्द संसिद्धि शब्द का प्रयोग हुआ है, यथा-"कर्कणैव हि ससिद्धिमास्थिता जनकादयः" अर्थात् कर्तव्यानुष्ठान से भी मोक्ष बताया है। किन्तु गीता में अन्यत्र "ज्ञानाग्निः सर्व कर्माणि भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन।" कहकर व तमेव विदित्वाऽतिमृत्यमेति नान्यः विद्यतेऽयनायः इस स्मृति वाक्य ने ब्रह्मज्ञान से ही मोक्ष बताया है। जैन शास्त्र ज्ञानक्रियाभ्या मोक्षः तथा सम्यग् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः से सम्यग्दर्शन मूलक ज्ञान एवं क्रिया से ही मोक्ष बताता है जो ज्ञानक्रिया उपाध्याय यशोविजय रचित शास्त्रवार्ता समुच्चय टीका आदि ग्रन्थ में तत्त्वनिश्चय द्वारा सम्पन्न द्वेषशमन से सुलभ होते हैं। अतः यहाँ कहा गया "द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धि सुखावह।"68 मोक्ष शब्द को निर्वाण पद से सम्बोधित किया है। यह मोक्ष मानवीय जीवन से सुलभ है। देह जीवन के लिए इसे दुर्लभ कहा है, पर यह सर्व सुलभ नहीं है, क्योंकि सभी के लिए ममत्व रहित रहना, मोहशून्य बनना अशक्य है, फिर भी इसकी सत्यता का आश्वासन आप्तपुरुषों में उच्चारित किया है। - यह आप्तवाणी से ही समझ में आता है, क्योंकि प्रत्यक्षगम्य नहीं है। अनुमान से अनुसंधेय रहा है। फिर भी दर्शन जगत् बार-बार मोक्ष शब्द को दोहराता आया है। मोक्षगत जीव मोक्ष का परिचय नहीं देते हैं। वह तो शास्त्रवचनों से ही बोधित रहा है। अतः मोक्षमान्य विषय रहा है मतिमानों का। इसमें इतिहास की साक्षी भी है। शास्त्र की सम्मति भी है। समाज की अनुमति भी है। अतः मोक्ष रूढ़ भी है, रहस्यमय भी है, और परोक्ष भी है। प्रमाणनयों से इसका प्रस्तुतीकरण होता है। इस प्रकार जैन दर्शन के अनुसार यद्यपि मोक्ष का स्वरूप वाणी से अगम्य एवं वाचक-वाच्य भाव से परे है। नैतिवाद से गम्य है तथापि उस विषय में हमें विस्तृत एवं उपयोगी निरूपण उपलब्ध होता है जबकि अन्य भारतीय दर्शनों में वैसा विवेचन उपलब्ध नहीं है। इस दृष्टि से जैन दर्शन का मोक्षवाद विलक्षण है-यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं। निष्कर्ष-निष्कर्ष रूप में संक्षेप में कह सकते हैं कि मोक्षतत्त्व एक श्रद्धागम्य तत्त्व है, क्योंकि वह अतीन्द्रिय है। उसे उपादेय रूप में स्वीकारा गया है। प्रत्येक जीवात्मा अत्यन्त दुःखों से निवृत्त होकर अत्यन्त सुख की चाहना करता है और यदि दुःख निवृत्तिमूलक सुख यदि कहीं हो तो वह एकमात्र मोक्ष में स्थित सिद्धात्माओं को। संसार का कितना श्रेष्ठ कोटि का सुख क्यों न हो? लेकिन वह दुःख मिश्रित ही होता है, सुख का आभास मात्र होता है, जिससे जन्म-मरण की परम्परा चालू रहती है और वही सब से बड़ा दुःख है। अतः उपाध्याय यशोविजय ने मोक्ष में ही अनुपम सुख है, ऐसा स्पष्ट रूप से कहा है। तीन लोकों में स्थित भूत, वर्तमान और भविष्यकालीन भावों के स्वभाव को प्रत्यक्ष जानने वाले सर्वज्ञ भी सिद्धों के सुखों का वर्णन करने में शक्तिमान नहीं हैं, क्योंकि उसके लिए कोई उपमा जगत् में नहीं मिलती, जिससे उस सुख के साथ तुलना कर सके, ऐसा अनन्त सुख सिद्धों को है। यह बात अनुभव, युक्ति हेतु से घटती है और जिनेश्वर के वचन से सिद्ध है, श्रद्धेय है। 538 For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International