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________________ उपाध्याय यशोविजय का व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व जैन शासन अगाध ज्ञानराशि का गहनतम सागर है। जो इस विराट सागर में गोते लगाते हैं, वे सिद्धान्तरूपी गुणरत्नों को प्राप्त करते हैं एवं स्वयं के जीवन को सम्यक् ज्ञानमय बनाकर अक्षय, अनुपम सुख की अनुभूति के साथ आत्मानन्द को प्राप्त करते हैं। उस उत्कृष्ट सुख की अनुभूति चारित्रवान एवं श्रद्धावान् आत्माओं को विशेष रूप से होती है, क्योंकि चारित्रवान आत्माएँ विषयों से विरक्त बनकर ज्ञान की ओर विशेष आकर्षित होते हैं, श्रद्धा से प्रत्येक पदार्थ के परमार्थ को ज्ञात कर जीवनपर्यन्त उसको हृदय में स्थिर करते हैं, यही वास्तविक स्थिति महोपाध्याय यशोविजय में उपलब्ध होती है। जैन शासन रूपी महासागर में जो तेजस्वी नर प्रगट हुए इनमें पूज्यपाद वाचकवर्य श्री यशोविजय महाराज का स्थान अग्रिम है। महोपाध्याय यशोविजय महाप्रभाविक, समन्वयवादी, दार्शनिक के रूप में विश्व विश्रुत रहे हैं। उनकी संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती ग्रंथराशि विपुल मात्रा में है। उनकी प्रकाण्ड विद्वत्ता, अपूर्व ज्ञानगरिमा, निष्पक्ष आलोचना और भाषा प्रभुत्व भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। यशोविजय ने अपना समस्त जीवन विविध शास्त्रों के अध्ययन, चिंतन और सृजन में लगा दिया। उन्होंने अनेक विषयों पर अपनी कलम चलाई। उनकी व्यापक दृष्टि जैन दर्शन की चर्चा तक ही सीमित न रही, अन्य दर्शनों की चर्चा भी उन्होंने उतने ही अधिकारिक रूप से की है। यशोविजय ने अपने अध्ययनकाल में पारम्परिक अध्ययन के साथ उस समय की अन्य परम्पराओं में प्रचलित नवीन न्याय का गहन अध्ययन भी किया था। इनके फलस्वरूप उन्होंने जैन दर्शन का नव्य न्याय पर आधारित जितना प्रभावी विश्लेषण तथा प्रतिपादन किया, उतना न तो उनके पूर्ववर्ती आचार्यों ने किया और न ही परवर्ती कोई आचार्य ही कर पाया है। योग विद्या विषयक उनकी दृष्टि इतनी व्यापक थी कि वे अपने अध्ययन को अपने सम्प्रदाय के ग्रंथों तक सीमित नहीं रख सके। अतएव उन्होंने पातंजल योगसूत्र पर भी अपना विवेचन लिखा। इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के सूक्ष्मप्रज्ञा विद्यानन्द के कठिनतम ग्रंथ आष्टसहस्री पर व्याख्या भी लिखी। यशोविजय जैनशासन के उन परम प्रभावक महापुरुषों में अग्रणी थे, जिनके द्वारा कथित अथवा लिखित शब्द प्रमाण स्वरूप माना जाता है। ये युग प्रवर्तक महापरुष थे. इसमें कोई सन्देह नहीं है। पण्डित सुखलाल के इस मन्तव्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इस क्रांतिकारी महापुरुष का स्थान जैन परम्परा में ठीक वही है, जो वैदिक परम्परा में जगद्गुरु शंकराचार्य का है। अनेक उपमाओं से अलंकृत एवं सुश्लाघ्य प्रशंसा को प्राप्त महोपाध्याय यशोविजय की विशाल एवं आदर्श प्रतिज्ञा देखने लायक है "स्याद्वादार्थः कापि कस्यापि शास्त्रे यः स्यात् कश्चिद् दृष्टिवादार्णवोत्थः। तस्याख्याने भारती सस्पृहा मे भक्तिव्यक्ते ग्रहोडाणौ पृथौ वा।।" "दृष्टिवाद (बारहवां शास्त्रांग) समुद्र से प्रगट हुआ स्याद्वाद पदार्थ पीयूष किसी के भी शास्त्र के कोई भी विभाग में, जैसा हो ऐसा आख्यान करने में स्याद्वाद के प्रति तीव्र भक्ति होने से मेरी बुद्धि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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