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________________ * प्रकृति के वियोग का नाम मोक्ष है, यह प्रकृति तथा पुरुष में भेद विज्ञानरूप तत्त्वज्ञान से होता है। प्रकृति और पुरुष में भेदज्ञान होने से जो प्रकृति का वियोग होता है, वही मोक्ष है। जैसे यह पुरुष वस्तुतः शुद्ध चैतन्य रूप है। प्रकृति से अपने स्वरूप को भिन्न न समझने के कारण मोह से संसार में परिभ्रमण करता रहता है। इसलिए सुख-दुःख मोह स्वरूप वाली प्रकृति को जब तक आत्मा से भिन्न नहीं समझता तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। प्रकृति को आत्मा से भिन्न रूप में देखने पर तो प्रकृति की प्रवृत्ति अपने आप में रुक जाती है और प्रकृति का व्यापार रुक जाने पर पुरुष का अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है। योग दर्शन के अनुसार मोक्ष का अर्थ है. पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूप प्रतिष्ठा वा चितशक्तेरिति। पुरुषार्थ शून्य गुणों का पुनः उत्पन्न न होना, सांसारिक सुखों-दुःखों का आन्तरिक उच्छेद अर्थात अपने स्वरूप में प्रतिष्ठान। ___ योग दर्शन सांख्य के तत्त्वमीमांसा और उसके मोक्ष विचार को मानते हुए उससे एक कदम और आगे बढ़ता है-कैवल्य को प्राप्त करने का अनिवार्य साधन है-अष्टांग योग का अभ्यास। मीमांसा दर्शन मीमांसा दर्शन में स्वर्ग की चर्चा जितनी अधिक मात्रा में है, मोक्ष उतना ही कम चर्चित है। फिर भी कुछ वेदवाक्य सोऽश्नुते सर्वकामान सहबध्मणा विपश्चितः। मोक्ष विषयक माने जाते हैं। मीमांसकों के मतानुसार निरतिशय सुखों की अभिव्यक्ति ही मोक्ष है। मीमांसकों के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं . प्रभाकर मत के अनुसार-धर्म और अधर्म के अदृश्य होने पर शरीर का पूर्ण रूप से निरोध होना मोक्ष है। भट्ट मीमांसक के अनुसार चैतन्य आत्मा में गुप्त शक्ति के रूप में अनुवृत रहता है। यद्यपि सर्वदर्शनसंग्रह के अनुसार मीमांसक मुक्ति में निरतिशय सुख की अभिव्यक्ति मानते हैं। उन्होंने मीमांसक सम्मत मोक्ष का स्वरूप बतलाते हुए लिखा है नित्यनिरतिशयसुखाभिव्यक्तिर्मुक्ति।" वेदान्त दर्शन ब्रह्मसूत्र के रचयिता बादरायण वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक माने जाते हैं। ब्रह्मसूत्र पर शंकर भास्कर, रामानुज आदि अनेक आचार्यों ने भाष्यों की रचना की है। आचार्य शंकर ने अपने भाष्य में अद्वैत ब्रह्म की सिद्धि की है। वेदान्तदर्शन में अन्तःकरण संयुक्त ब्रह्म ही जीव है और ब्रह्म एक है, ऐसा माना गया है। जो कुछ भी हम देखते हैं, वह ब्रह्म का ही प्रपंच है, किन्तु ब्रह्म को कोई नहीं देखता है। यही बात छान्दोग्य उपनिषद् में बताया है कि आरामं तस्य पश्यन्ति, न तत् पश्यति वश्चन। . 534 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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