________________ जहाँ-जहाँ स्वतन्त्रता है वहाँ सुख है और वही मोक्ष है। परतन्त्रता दुःख है और फलतः वही बन्ध है। मनुष्य जो कुछ भी कार्य करता है, उसका एकमात्र लक्ष्य होता है-सुख की प्राप्ति, स्वतन्त्रता की प्राप्ति। न्यायदर्शन में न्याय दर्शन के अनुसार आत्मा के सभी दुःखों का आत्यन्तिक उच्छेद हो जाना ही मोक्ष है ' तदत्यन्त विमोक्षोऽपवर्गः। चरमदुःखध्वंस मोक्षः। तर्क दीपिका में न्याय दर्शन के मत मोक्ष की यही व्याख्या की है। वैशेषिक दर्शन वैशेषिक दर्शन न्याय दर्शन का समान तन्त्र है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार चैतन्य अथवा ज्ञान का स्वाभाविक गुण नहीं है। बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार-ये सब आत्मा के औपाधिक गुण हैं, आगन्तुक गुण हैं। वे आत्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से रहते हैं। अतः जब मोक्ष होता है तब आत्मा के इन सभी गुणों का भी वियोग हो जाता है तभावे संयोगाभावोऽप्रादुर्भावश्च मोक्षः।16 अर्थात् शरीरधारक मन, कर्म आदि का अभाव होने से वर्तमान शरीर के संयोग का अभाव हो जाता है एवं नए शरीर का उत्पाद नहीं होता है। वैशेषिक मत के अनुसार मोक्ष के स्वरूप का वर्णन करते हुए मल्लिसेन कहते हैं तदेवं धीषणादीना नवानामपि मूलतः। गुणानामात्मनो ध्वंसः सोऽपवर्ग प्रतिष्ठितः।।" इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार सुख, दुःख, इच्छा आदि के समान ज्ञान का भी मोक्ष अवस्था में अभाव हो जाता है। वैशेषिक मत में बुद्धि, सुख आदि आत्मा के नौ विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद होना मोक्ष है। सांख्य और योग दर्शन . सांख्य दर्शन वाले कहते हैं कि माठरवृत्ति में मुक्ति के विषय में ऐसा वर्णन मिलता है कि खूब हंसो, मजे से पीओ, आनन्द करो, खूब खाओ, खूब मौज करो, हमेशा रोज-बरोज इच्छानुसार भोगों को भोगो। इस तरह जो अपने स्वास्थ्य के अनुकूल हो वह बेधड़क होकर करो, इतना सब करके भी यदि तुम कपिल मत को अच्छी तरह समझ लोगे तो विश्वास रखो कि तुम्हारी मुक्ति समीप है। तुम शीघ्र ही कपिल मत के परिज्ञानमात्र से सब कुछ मजा, मौज करते हुए भी मुक्त हो जाओगे। उपाध्यायजी ने भी शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका स्याद्वाद कल्पलता में कहा है कि सांख्य पच्चीस तत्त्वों को यथावत् जानने वाला चाहे जिस आश्रम में रहे, वह चाहे शिखा रहे, मुंड मुंडावे या जटा धारण करे उसकी मुक्ति निश्चित है। सांख्य तत्त्वों के ज्ञाता बिना मोक्ष प्राप्ति करना संदेह है प्रकृति वियोग-मोक्ष पुरुषस्य बतैतदन्तरज्ञानात्।18 533 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org