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________________ - विरुद्ध ऐसे उभय धर्मरूप एक साथ कह सकते हैं या नहीं। जैसे-घट को एक बार स्यात, सत् कहा, अगर दूसरी बार स्यात असत् कहा तो एक साथ कैसे कहा कि घट कैसा है? उनके उत्तर में घट अवक्तव्य है, तब यह प्रश्न होता है कि अवक्तव्य क्यों? जैसे पुष्पदंत शब्द से सूर्य एवं चन्द्र दोनों का एक शब्द से निर्वचन होता है, वैसे यहाँ भी सत्-असत्-दोनों एक साथ निर्वाचक एवं सांकेतिक शब्द कहने से घट वक्तव्य होगा ना? अर्थात् उस संकेत से वह सत्-असत् उभयरूप एक साथ वक्तव्य होगा ना? उनके उत्तर में उपाध्यायजी ने कहा है-वो संकेत शब्द किस प्रकार का कहेंगे? संकेत जो सत्-असत् का क्रमबद्धवाचक है तो प्रस्तुत भंग के लिए उपयोगी नहीं है। जो एक साथ सत्-असत् का वाचक है अर्थात् युग पदवाचक है तो वह वस्तु भी प्रश्नान्तर्गत है या घट सत्-असत् का उभयरूप एक साथ निर्वचन हो सकता है? तब तुम कहोगे कि हाँ, संकेत से हो सकता है तब सांकेतिक शब्द के लिए शक्तिज्ञान कैसे करोगे? अर्थात् एक साथ सत्-असत् उभय में सांकेतिक शब्द की शक्ति रखनी पड़े तब शक्यतावच्छेदक कौन सत्व, असत्व जो कहे तो फिर वहाँ प्रश्न होता है कि सांकेतिक पद से सत्व एवं असत्व का निर्वचन एक साथ होगा या क्रमवार? एक साथ होगा ऐसा तो नहीं कह सकते, क्योंकि जिस समय सत्व का उच्चारण होता है तब असत्व का उच्चारण नहीं होता है और जब असत्व का उच्चारण होता है तब 'सत्व का निर्वचन नहीं होता है। तब वहाँ सत्व-असत्व दोनों का एक साथ निर्वचन करने वाले कोई भिन्न सांकेतिक शब्द की कल्पना करे तो वहाँ वापिस शक्यतावच्छेदक का प्रश्न खड़ा हो जाता है, इस तरह अनवस्था दोष आ जाता है। पू. उपाध्यायजी महाराज के शास्त्ररत्नों से भरे हुए अद्भुत रहस्यों एवं विशिष्ट पदार्थों का क्या वर्णन कर सकते हैं? यह तो सिर्फ सामान्य जीवलक्षी यानी सामान्य जीव समझे वैसे ही उदाहरण दिया है. वरना तो दर्शन एवं सक्ष्म तत्त्व के जानकार को समझ में आये ऐसा तो कई ग्रंथों में कई स्थानों पर विशिष्ट प्रकार के रहस्य भरे हुए हैं। सूक्ष्म एवं स्थूल रहस्यों एवं विशेषताओं सहित उनकी शास्त्रकृतियों में कहे हुए तत्त्वों एवं पदार्थों का जीवन बोध, मीमांसा एवं अनुभवन वो मानवजीवन को चार चाँद लगा दे जैसा है। इसके लिए श्रवणादि का बहुत ही अभ्यास करना जरूरी है। पुनः-पुनः चिंतन, मनन, श्रवण, ग्रहण उनके बाद परिशीलन अनुभवन-आत्मभवन होना चाहिए अर्थात् उसमें अपनी आत्मा को भावित बनाना जरूरी है। जिन्दगी शॉर्ट है, उससे सिर्फ उपाध्याय के ग्रंथों का ही अभ्यास करेंगे तो भी अभ्यास पूर्ण नहीं होगा पर जिन्दगी पूरी हो जायेगी। ऐसे गूढ़ रहस्यों से भरे हुए उपाध्यायजी के ग्रंथ हैं, ऐसा मेरा मानना है। उनका सही ढंग से अभ्यास किया जाए तो उसमें से व्यापक बोध एवं प्रेरणा पाकर अपने जीवन को सुकृत कर सकते हैं किन्तु जो ऊपर उन रहस्यों एवं विशेषताओं सहित उन पदार्थों के आत्मभवन का त्याग करके केवल साहित्यिक दृष्टि, ऐतिहासिक दृष्टि, समन्वय दृष्टि, तुलनात्मक दृष्टि इत्यादि विषय प्रतिभाव रूप ज्ञान में ही मग्न हो जाए तो मानव जीवन का अनमोल कर्तव्य जो विषय-परिणति एवं संवेदन ज्ञान है, वो ऐसा ही रह जायेगा। विकसित श्रद्धावाद की जरूरत तत्त्व का प्रतिभासज्ञान कितना ही क्यों न हो जाए पर जो परिणतिज्ञान एवं तत्त्वसंवेदन ज्ञान प्रगट न हो तो उस ज्ञान की कोई कीमत ही नहीं है। परिणति ज्ञान लाने के लिए हृदय को निर्बल बनाकर उस तत्त्व के स्वरूप के अनुरूप बनाना आवश्यक हो जाता है। जैसे-आश्रव तत्त्व का ज्ञान हो गया, 510 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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