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________________ इस जिज्ञासा का समाधान रूप प्रयोजन तत्त्व के रूप में मोक्ष तत्त्व दिखाया। ऐसे तत्त्व सात हो सकते हैं, किन्तु यहां वो जिज्ञासा रहती है कि उपादेय का फल मोक्ष है, वैसे हेय का फल संसार है इसलिए मोक्ष की तरह संसार को भी एक भिन्न तत्त्व कहना चाहिए एवं मोक्ष के प्रतियोगी के रूप में भी संसार तत्त्व लेना चाहिए, वो क्यों नहीं लिया है? पू. उपाध्यायजी ने इस प्रश्न का सुन्दर समाधान देते हुए कहा है कि संसार के स्वरूप का वर्णन बंध तत्त्व में हो जाता है इसलिए संसार नामक भिन्न तत्त्व निरर्थक है जबकि मोक्ष का वर्णन निर्जरा तत्त्व में नहीं होता है, क्योंकि मोक्ष में तो आत्मा की सर्व विशुद्ध अवस्था एवं अनन्त गुणों का प्रगटीकरण है, इसलिए मोक्षतत्त्व का स्वतंत्र रूप में वर्णन आवश्यक है। वैसे ही शास्त्रवार्ता समुच्चय पर उपाध्यायजी रचित स्याद्वाद कल्पलता180 नामक टीका में देखें, यहाँ पुण्यानुबंधी पुण्य के पाप एवं पापानुबंधी पुण्य के पाप की स्थिति यही चल रही है कि जिस पुण्य एवं पाप का भुगतान करते-करते भविष्य के लिए नया पुण्य का उपार्जन हो, उसे पुण्यानुबंधी पुण्य एवं पाप का उपार्जन हो, उसे पापानुबंधी कहा जाता है। किन्तु उक्त ग्रंथ में पूज्य उपाध्यायजी ने सूचित किया है कि जो पुण्य-पाप को उदय में लाने के लिए हृदय को महामलिन करने वाले पापकार्य किये जाते हैं, वे पापानुबंधी कर्म होते हैं। उससे विपरीत हृदय की पवित्रता एवं कोमलता को सलामत रखी जाती हो तो उदय में आने वाले पुण्य-पाप का योग पापानुबंधी पुण्य से बच जाता है। शास्त्रवार्ता की टीका में एवं नयोपदेश, ज्ञानबिन्दु।8l आदि ग्रंथों में नव्यन्याय शैली के तर्क से जैन सिद्धान्त एवं तत्त्वों की विशेषता दिखाने वाला अद्भुत रहस्यों एवं पदार्थ-निरूपण अधिकतर प्रमाण में यह दर्शन दिवाकर उपाध्यायजी ने किया है, जो सूक्ष्म, बुद्धिगम्य एवं नव्यन्याय सहित दर्शनों की . परिभाषा के सम्पूर्ण बोध से ग्राह्य है। ज्ञानबिन्दु ग्रंथ में सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एवं मल्लवादी के केवलज्ञान-केवलदर्शन-उपयोग के अनुरूप तीन मतों का सुन्दर समन्वय उपाध्यायजी महाराज ने ज्ञानबिन्दु में किया है। उसी ग्रंथ में मधुसूदन सरस्वतीकृत सिद्धान्तबिन्दु ग्रंथ में परिष्कृत अविद्या-माया के सिद्धान्त का भी सुन्दर निरक्षण उपाध्यायजी ने किया है एवं कर्मप्रकृति की विस्तृत दीक्षा के प्रारम्भ में नव्यन्याय की शैली से आठ कर्मों की भिन्न-भिन्न कर्मप्रकृतियों की रहस्यमय व्याख्या की है। ग्रंथ के बीच-बीच में भी उनकी अद्भुत बुद्धि का प्रभाव दिख रहा है। ग्रंथ के अंत में स्वोपज्ञ उदय प्रकरण में कर्म संबंधी अन्य ग्रंथों के पदार्थों का संकलनबद्ध भव्य संकलन किया है किन्तु विषयान्तर होने के कारण शॉर्ट में ही बताया है। पू. उपाध्याय महाराज स्व-पर के शास्त्रों के इतने सारे विषयों में विद्वान् हैं कि सभी उनको बहुश्रुत के रूप में ही पहचानते हैं। इतना ही नहीं कि उनकी विद्वत्ता सिर्फ ज्ञान-भण्डारों एवं पुस्तकों तक ही सीमित रहीं है बल्कि इतना उनको कण्ठस्थ भी था कि उनके समकालीन समर्थ विद्वान् उपाध्यायजी मानविजय महाराज ने उनके लिए स्मारित श्रुतकेवली का विशेषण का उपयोग किया है। श्रुतकेवली याने द्वादशांगीमय जैन प्रवचन के ज्ञाता। उपाध्याय ने द्वांत्रिशत्-द्वात्रिंशिका' नामक ग्रंथ में पू. आचार्यवर्य हरिभद्रसूरीश्वरकृत योगदृष्टि, योगबिन्दु, षोडशक आदि ग्रंथों के असाधारण रहस्यों का निर्देशन किया है, जैसे-योग की चौथी दृष्टि में आने के लिए प्राणायाम नामक योग के अंग की सिद्धि होने की बात योगदृष्टि समुच्चय शास्त्र में बताई गई है। पू. उपाध्याय ने उनका रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है, यह प्राणायाम तो भाव प्राणायाम समझना एवं उसमें श्वाच्छोश्वास रूपी द्रव्यप्राण का रेचक, पूरक, कुंभक नहीं पर बाह्य भावरूपी प्राण 507 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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