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________________ किन्तु परमात्म प्रकाश में मूढ़, विचक्षण और परब्रह्म-ऐसे तीन नामों का उल्लेख करते हुए कहा है मुठु वियकखणु बंभु परु अप्पा ति-बहु हवेइ। देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मुठु हवइ / / आचार्य शुभचन्द्र ने भी आत्मा की तीन अवस्थाओं का निर्देश करते हुए कहा है कि त्रिप्रकार स भूतेषु सर्वेस्वात्मा व्यवस्थितः। बहिरन्तः परश्चेति जल्पैर्वक्ष्यभाणकै।।45 इसी तरह आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में त्रिविध आत्मा का वर्गीकरण करते हुए कहा है कि बाह्यात्मानमपास्य प्रसक्ति भाजान्तरात्मना योगी। सततं परमात्मानं विचिन्तयेतन्मयत्वाय / / एवं पं. आशाधर के अध्यात्म रहस्य" में आत्मा की उपर्युक्त अवस्थाओं का विवेचन किया है। आनन्दघन के समकालीन विचारकों में भैया भगवतीदास ने ब्रह्मविलास में कहा गया है कि एक जु चेतन द्रव्य है, ति में तीन पुकार। बहिरात्म अन्तर तथा परमात्म पद सार / / 148 धानतराय ने धर्मविलास में भी इसी बात की पुष्टि की है तीन भेद व्यवहार सौ सरब जीव सब ठाम। बहिरन्तर परमात्मा निहचै चेतनराम।।40 उपरोक्त सभी परिभाषाओं की पुष्टि करते हुए आचार्य उपाध्याय यशोविजय ने कहा है बाह्यात्मा चान्तरात्मा च परमात्मेति चे त्रयः। कायाधिष्ठायक ध्येयः प्रसिद्धा योग वाङ्मये / / 150 उपाध्याय यशोविजय की एक और विशेषता यह भी है कि उन्होंने इन तीनों अवस्थाओं को चौदह गुणस्थानकों की अवधारणा के साथ भी घटाया है। फिर भी जैन रहस्यवाद दो तत्त्वों पर आधारित है-आत्मा और परमात्मा। आत्मा में बहिरात्मा और अन्तरात्मा का समावेश होता है। रहस्यवाद के मूल में आत्मा और परमात्मा-ये दो ही अवस्थाएँ काम करती हैं। तत्त्वतः आत्मा और परमात्मा भी अलग-अलग नहीं हैं। दोनों एक ही हैं, अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है, जिसे शुद्धात्मा कहा जाता है। संसार की प्रत्येक आत्मा कर्ममल से रहित होने पर परमात्मा बन जाती है। इस प्रकार जैन धर्म आत्मा और परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करता है। इसी दृष्टि से जैन धर्म में रहस्यवाद प्राचीनकाल से पाया जाता है। जैन परम्परा में सर्वप्रथम रहस्यवादी के रूप में भगवान ऋषभदेव का नाम लिया जा सकता है, जिनका उल्लेख यजुर्वेद में है। उसमें ऋषभदेव और अजितनाथ को गूढ़वादी कहा गया है। श्रीमद्भागवत में भी जैन परम्परा समर्थक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सम्बन्ध में उनके चरित और साधना पद्धति का जो विस्तृत विवेचन मिलता ह15 उससे यह असंदिग्धरूप से प्रमाणित हो जाता है कि ऋषभदेव विश्व के उच्चकोटि के रहस्यदर्शियों में से एक थे। 498 34 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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