________________ जैन धर्म में रहस्यवाद भारतीय साहित्य जगत् में जैनेतर धर्मों का रहस्यवाद जितना अधिक चर्चित रहा है, उतना जैनधर्म का नहीं। व्यक्ति जैन धर्म में रहस्यवाद नाम सुनकर ही चौंक उठता है। वह तत्काल कह सकता है कि जैन धर्म में रहस्यवाद हो ही नहीं सकता, क्योंकि जैन दर्शन ईश्वर नामक सत्ता में विश्वास नहीं करता। वस्तुतः रहस्यवाद का आधार आस्तिकता है और आस्तिकता की भित्ति आत्म-परमात्मवाद है। रहस्यवाद का प्रारम्भ आत्म-अस्तित्व से होता है और उसका समापन होता है परमात्म साक्षात्कार में। यद्यपि जैन परम्परा में ईश्वर या ब्रह्म जैसी किसी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि उसमें परमात्मा का प्रत्यय ही अनुपस्थित हो। उसके अनुसार आत्मा की शुद्ध अवस्था का नाम ही परमात्मा है, जिसे वैदिक शब्दावली में परम ब्रह्म कहा जाता है। जैन धर्म में आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी गई हैं-1. बहिरात्मा, 2. अन्तरात्मा, 3. परमात्मा। आत्मा के त्रिविध वर्गीकरण की यह परम्परा अति पुरानी है। पूर्ववर्ती अनेक जैनाचार्यों एवं साधकों ने आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं पर विचार किया है। उनमें से कुन्दकुन्दाचार्य, स्वामी कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्द्रमुनि, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय, आनन्दघनजी आदि अनेक प्रभृति के नाम उल्लेखनीय हैं। आत्मा की त्रिविध अवस्थाओं का उल्लेख सबसे पहले कुन्दकुन्दाचार्य ने मोक्षप्राभृत में इस तरह . किया है दितपयारो सो अप्प परमेतर बाहरो हु देहीणं। तत्थ परो झाइज्जइ अंतीवाएण चएहिं बहिरप्पा।।10 स्वामी कार्तिकेय ने भी कार्तिकेयानुप्रेक्षा में आत्मा के उपर्युक्त तीन भेद इस तरह प्रतिपादित किये हैं, जैसे जीवा हवंति तिविहा बहिरप्पा तह य अंतरप्पा य। परमप्पा विय दुविहा, अरहंता तह य सिद्धाय।।। यद्यपि उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने परमात्मा में भी दो वर्ग बताये हैं-अरहंत और दूसरा सिद्ध। इसी तरह पूज्यपाद ने भी समाधितन्त्र में आत्मा की तीन अवस्थाओं की चर्चा की है, जैसे बहिरंत परश्चेति त्रिधात्मा सर्वदेहिषु / उपेयातत्र परमं मध्यीपायाद वहिस्तप जेत्।। योगीन्द्र मुनि ने परमात्मप्रकाश एवं योगसार में आत्मा की इन तीन अवस्थाओं पर प्रकाश डाला है। योगसार में उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा-इन तीन नामों का उल्लेख करते हुए कहा है ति पयारो अप्पा भुणहि परु अंतरु वहिररापु। पर आथहि अंतर-सहिउ बाहिरु चयहि णिर्भत / / 497 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org