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________________ बौद्ध धर्म में रहस्यवाद समस्त वैदिक साहित्य में मुख्यतः अद्वैत तत्त्व के आधार पर रहस्य भावना की अभिव्यक्ति हुई है। इसके फलस्वरूप तत्त्व-चिन्तन में निराकार ब्रह्म की उपासना का विकास हुआ किन्तु वेद और उपनिषदों में उसके साथ-साथ सगुण उपासनाएँ भी वर्णित हैं। सामान्य जन के लिए निराकार ब्रह्म की उपास अत्यन्त कठिन प्रतीति होती है, इसीलिए संभवतः सगुणोपासना की आवश्यकता महसूस की गई। वैदिक धर्म में कर्मकाण्ड की अधिकता के परिणामस्वरूप जैन एवं बौद्ध धर्मों का विकास हुआ। बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाएँ हैं-हीनयान और महायान। महायान शाखा में अमिताभ बुद्ध की उपासना की जाती है, साथ ही इसमें रहस्यात्मक-साधना के भी दर्शन होते हैं। इसका कारण यह है कि बौद्ध धर्म में महायान शाखा तान्त्रिक मानी जाती है। प्राचीन महायान में से ही मन्त्रयान, वज्रयान, सहजयान और कालचक्रयान पंथ का उद्भव हुआ। तान्त्रिक बौद्ध साधना में प्रमुख रूप से साधनात्मक रहस्यवाद पाया जाता है, क्योंकि इसमें तान्त्रिक क्रियाएँ प्रयुक्त हुई हैं। इस साधना का मुख्य लक्ष्य है-बिन्दुसिद्धि। बौद्ध तान्त्रिक परिभाषा में बिन्दु ही बोधिचित नाम से प्रसिद्ध है। बौद्धि तान्त्रिक साहित्य में षड्योग का उपयोग विशेष रूप से किया गया है। इसमें साधनात्मक रहस्यवाद के अतिरिक्त काव्यगत और सौन्दर्यानुलक्षी रहस्यवाद अथवा भावनात्मक रहस्यवाद दृष्टिगत नहीं होता। वस्तुतः बौद्ध धर्म में व्यावहारिक साधना और आंतरिक सूक्ष्म तत्त्वों का निर्देश हुआ है। इसलिए इसमें यौगिक अथवा साधनात्मक रहस्यवाद का पाया जाना स्वाभाविक है। (अ) सिद्ध सम्प्रदाय में रहस्यवाद चौरासी सिद्धों को कहीं पर वज्रयानी और कहीं पर सहजयानी नाम से भी अभिहित किया जाता है। किन्तु 84 सिद्ध कौन थे, इसकी प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं। यद्यपि प्रमुख रूप से सरहपा, 'लुइपा, कहयपा, तन्तिया, भुसुकपा आदि को सिद्धों की संज्ञा से संबोधित किया जाता है तथापि इन सिद्धों की संख्या अनिश्चित है। आदि सिद्ध के सम्बन्ध में निश्चित जानकारी नहीं है। सिद्धों के काल के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद है। सिद्ध अपनी साधना को प्रतीकों के द्वारा स्पष्ट करते हैं। उन्होंने उलटीबानी के द्वारा भी रहस्य को प्रकट किया है। सिद्ध तन्तिया की अटपटी बानी भी रहस्यपूर्ण है। सिद्ध लुइपा ने (सं. 830) साधना को गूढ़ - रखने की दृष्टि से प्रतीकों की योजना निम्न रूप में की है काआ तरुवर पंच बिडाल, चंचल चीए पइट्ठो काल। दिअ करिअ महासुण परिमाण लूइ भणइ गुरु पुच्छिअ जाण।।" अर्थात् इस कायारूपी वृक्ष में बिल्लीरूप पांच विघ्न हैं। (बौद्ध ग्रंथों में ये पांच विघ्न-हिंसा, काम, आलस्य, विचिकित्सा तथा मोह माने गये हैं।) इन पांच विकारों की संख्या को निर्गुणधारा के सन्तों एवं हिन्दी के सूफी कवियों ने भी अपनाया है। कह्यपा सिद्ध (सं. 900) ऊपर भी ईड़ा-पिंगला को गंगा-यमुना के प्रतीकों द्वारा योग की क्रियाओं का वर्णन करते हैं 490 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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