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________________ रहस्यमय ब्रह्म की महत्त्वपूर्ण कल्पना का वर्णन भी ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के इस रूप में हुआ है सहस्र शीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्। स भूमि विश्वतो वृत्याऽत्यतिष्ठदशांगुलम् / / / अर्थात् यही व्यापक विराट तत्त्व हजारों हाथ, पैर, आंख और सिखाला पुरुष है। सारी पृथ्वी को ढककर परिमाण में देश अंगुल अधिक है। इसी तरह ब्रह्म की रहस्यात्मयता या उल्लेख भी ऋग्वेद में मिलता है। उपनिषदों में रहस्यवाद रहस्यात्मक भावना का विकसित रूप उपनिषद् साहित्य में उपलब्ध होता है। उसमें ब्रह्मविद्या, ब्रह्मविद्या की रहस्यमयता एवं गोपनीयता का वर्णन है। इसके अतिरिक्त उसमें आत्मा का स्वरूप, आत्मा की महत्ता और उसे ज्ञान, बुद्धि, प्रवचन श्रवण आदि से अप्राप्य माना गया है। परा तथा अपरा विद्या की रहस्यात्मकता भी सुन्दर ढंग से प्रतिपादित है। इसी तरह उपनिषदों में योग संबंधी विधान, नेति-नेति के द्वारा सत्य के स्वरूप का वर्णन, ज्योतिर्मय पात्र में विहित सत्य-ब्रह्म का चित्रण, प्रिया आलिंगनवत्, अन्तःबाह्य अभेद एवं साक्षात्कार की स्थितियों के क्रमिक विकास आदि रहस्यात्मक भावना के संकेत सूत्र उपलब्ध होते हैं। बृहदारण्यकोपनिषद् में विश्वात्मक सत्ता की एकता एवं उसके स्वरूप निर्धारण में रहस्यवाद की झलक निम्नांकित रूप में अभिव्यंजित हुई है पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। * वह परमात्मा पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण में से पूर्ण मिलता है। पूर्ण में से निकलने के बाद जो बचता है, वह भी पूर्ण है। दूसरे शब्दों में वह वक्ता पूर्ण है तथा जो कुछ उसका कार्य रूप समझा जा सकता है, वह भी पूर्ण है और इस दूसरे पूर्ण के उसमें लीन हो जाने पर फिर वही पूर्ण रह जाता है। उक्त विधान का अभिप्राय यह है कि वह नित्य एवं अद्वैत है। - केनोपनिषद् में ब्रह्म स्वयं ही रहस्यमय बना हुआ है। उसमें कहा गया है कि जो यह समझता है कि मैंने ब्रह्म को समझ लिया है, वह उसका स्वल्प ही जानता है व वास्तव में अनिर्वचनीय है। अतः यही कहा जा सकता है कि जो ऐसा समझता है कि ब्रह्म को मैंने पूर्णतया नहीं समझा है, वही उसको समझता है। जिसको यह अभिमान है कि मैं ब्रह्म को समझता हूँ वह उसको नहीं समझता। जो यह कहते हैं कि हमने उसको जान लिया है, वे उसको नहीं जानते। जो ज्ञानी होते हुए भी कहते हैं कि हम उसको नहीं जानते, वास्तव में उन्हीं को ब्रह्म विज्ञात है। ज्योतिर्मय पात्र से विहित सत्य ब्रह्म को रहस्य का प्रतीक बताते हुए ईशोपनिषद् एवं बृहदारण्योपनिषद् में कहा गया है कि हिरण्यमेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्। तत्वं पुषन्नपावृणु सत्यधर्माप द्रष्टये।। अर्थात् सत्य का वास्तविक तत्त्व का मुख सुवर्णमय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन! तू उस ढक्कन ... को हटा दे, जिससे उस सत्य धर्म की वास्तविक तत्त्व की साक्षात् प्रतीति मुझे हो सके। जगोल 488 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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