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________________ होना स्वाभाविक है। उसी प्रकार इस दृश्य जगत् के अतिरिक्त भी और कोई परम सत्ता, परमतत्त्व या परमसत्य है जो अतीन्द्रिय, अदृश्य एवं अरूपी है। उसके अस्तित्व से इन्कार नहीं किया जा सकता है। ऐसी भावना जब मानव मन में उद्भूत होती है तब उसका साक्षात्कार करने के लिए साधक व्यावहारिक भूमिका से ऊपर उठकर यथार्थ की, सत्य की खोज में विविध आध्यात्मिक साधना में संलग्न होता है। साधना, भावना, भाषा एवं अध्यात्म के द्वारा वह उस रहस्यमय परमतत्त्व से तादात्म्य स्थापित करने का प्रयास करता है। वेदों में रहस्यवाद सर्वप्रथम रहस्य भावना के बीज, मूल हमें वेदों में मिलते हैं। उनमें पूर्णता की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए रहस्य द्रष्टाओं की रहस्यानुभूति अभिव्यक्त हुई है। वैदिक मान्यतानुसार वेद वाणी रहस्यमय कही जाती है। वेदों को अपौरुषेय कहा गया है। यही कारण है कि वेद मंत्रों के रचयिता ऋषियों को मंत्रों का द्रष्टा कहा गया है। ऐसा कहा जाता है कि उन वेद मंत्रों का ज्ञान उन्हें प्रातिभ अनुभूति से हुआ। वेदों में निहित ज्ञान प्रतीकों द्वारा स्पष्ट किया गया है। ऋग्वेद में अंगिरस ऋषि अग्नि का ही स्वरूप है, जो दिव्य संकल्प शक्ति का प्रतीक है।" इसी तरह गो शब्द ज्योति, ज्ञान की रश्मियों का वाचक है। उषा को 'गवानेत्री' गौओं को प्रेरित करने वाली कहा गया है। इसके अतिरिक्त देवों की प्रार्थना तथा अनेकविध पदों का विधान भी वेदों में है। इसीलिए संभवतः डॉ. दास गुप्ता ने उसे 'याज्ञिक रहस्यवाद' जैसा नाम दिया है। चार वेदों में से ऋग्वेद में रहस्यवाद की सर्वाधिक अभिव्यंजना हुई है। रहस्यात्मक प्रत्यक्ष का वर्णन ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में है। इसमें इन्द्रिय गोचर सम्पूर्ण सृष्टि . के अस्तित्व एवं सृजन के सम्बन्ध में रहस्यात्मक अनुभूति से युक्त एक ऋषि के अनुभव का वर्णन किया गया है। वह इस प्रकार है ना सदासीन्नो सदासीत्तदानी नासीद, रजो नो व्योमा परोयत्, किमावदीवः? कुहकस्य शर्मन? अम्भः किमासीद् गहनं गंभीरम्।। न मृत्युरासीदमृतं न तहिं न रात्र्या अह्नः आक्षीत् प्रदेतः। आनीदवातं स्वधया तदेकं नस्काहान्यत्र परः किं च नास।। अर्थात् आदि में न सत् था और न असत्, न स्वर्ग था और न आकाश, किसने आवरण डाला, किसके सुख के लिए? तब अगाध और गहन जल भी कहाँ था? तब न मृत्यु थी, न अमृत। रात और दिन के अन्तर को समझने का भी कोई साधन नहीं था। वह अकेला ही अपनी शक्ति से होते हुए भी श्वास-प्रश्वास ले रहा था। इसके अतिरिक्त इसके परे कुछ न था। ऋग्वेद के 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' सूत्र में भी रहस्यात्मकता परिलक्षित होती है। उसमें कहा गया है इन्द्र मित्रं वरुणमग्निमादुरयो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान। एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वानमाहु।।७० अर्थात् इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, सुवर्ण, यम, मातरिश्वान इत्यादि पृथक्-पृथक् देवता इसी एक के अनेक रूप हैं। वस्तुतः सत्य पदार्थ एक ही है, किन्तु विद्वान् उसे विविध नामों से परिभाषित करते हैं। 487 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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