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________________ उपरोक्त गाथा नं. 74 की स्वोपज्ञ टीका के 'याचनप्रवणम्' का अर्थ 'स्वोद्देशकदानेच्छापरक वचन' किया है। बाद में इसमें घटकीभूत दानपद की सुन्दर मीमांसा करके अन्त में अपनी विशिष्ट शैली से ज्ञान का निर्वचन किया है। इस प्रकार भाषादर्शन लक्षी भाषा रहस्य की टीका अनेक विशेषताओं से विशिष्ट है। वर्तमान में नूतनदीक्षितों के साथ-साथ कुछ अन्य श्रमणों में भी श्रमणयोग्य भाषा के उच्चार में शैथिल्य ज्ञात हो रहा है। इसका मुख्य कारण यह है कि वे श्रमणयोग्य भाषा से अनभिज्ञ हैं। उपाध्याय यशोविजय ने भाषा रहस्य ग्रंथ में तो यहाँ तक बताया है कि जो वचनविभाग को नहीं जानता हुआ मौन भी रखे तो भी वह वचनगुप्त का आराधक नहीं है। संयम यानी अष्टप्रवचनमाता का पालन। वचनगुप्त अष्टप्रवचनमाता में से एक है। जब वचनगुप्ति का ही पालन नहीं होगा तो अष्टप्रवचनमाता की आराधना कैसे हो पाएगी? . पौद्गलिक प्रशंसा के वचन "यह उपाश्रय बहुत सुन्दर है", "आज अच्छी हवा आ रही है", "आपका शरीर बहुत अच्छा है", "यह बैंक बहुत अच्छा है" इत्यादि एवं श्रमणयोग्य भाषा, जैसे गृहस्थ को 'आओ', 'बैठो', 'तुम्हारा शरीर ठीक है?' इत्यादि श्रमण नहीं बोल सकते हैं। इस प्रकार बोलने से भाषा समिति का भंग होता है। शास्त्र में तो कहा है कि जो सावद्य एवं अनवद्य भाषा के भेद को नहीं जानता है, उसे बोलना भी कल्याणकारी नहीं है, व्याख्यान देना तो दूर रहा। देखिए सावण्णवज्जाण वयणाणं जो न याणइ विसेसं। वोर्तुपि तस्स ण खमं किमगं पुण देसणं काऊ।।195 विद्वान तो इस ग्रंथ को साधन्त पढ़कर वचन विभाग में कुशल बन सकते हैं, परन्तु टीकाकार ने तो इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद करके संस्कृत-प्राकृत से अनभिज्ञ श्रमणों के ऊपर भी अनन्य उपकार किया है। अतः उपाध्यायजी कहते हैं कि मेरा सभी से अनुरोध है कि यह ग्रन्थ साधन्त पढ़कर वचन-विभाग के ज्ञाता बनें। उससे भी विशेष करके पांचवें शतक की गाथा नं. 85 को लगाकर गाथा नं. 97 तक का ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है, क्योंकि उसमें ग्रंथकार एवं टीकाकार ने दशवैकालिक में सप्तम अध्याय के अनुसार श्रमण जीवन में बहुत ही उपयोगी सामग्री का परिवेषण किया है। भाषा संबंधी वक्तव्य के रहस्यार्थ को परोपकारार्थ प्रगट करने के लिए महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराज ने भाषादर्शन लक्षी भाषारहस्य नामक प्रकरणरत्न की रचना की और स्वोपज्ञ विवरण से उसे अलंकृत भी किया। इसलिए भाषादर्शन लक्षी उपाध्यायजी का भाषा रहस्य ग्रंथ अनेक विशेषताओं से विशिष्ट है। अंत में उन्होंने अपनी इच्छा को व्यक्त करते हुए कहा है कि चाह नहीं इतिहासों की स्यादि में नामनिशान रहे, चाह नहीं जग में गीतों में मेरा गौरव-ज्ञान रहे। चाह यही है मेरे मुख में तेरा मंगल-गान रहे, परोपकार में पावनपथ में बस मेरा विश्राम रहे।। भाषा-दर्शन संबंधी उपाध्यायजी ने भाषा-रहस्य नामक ग्रंथ लिखकर गगन में चार चाँद लगाये हैं। 470 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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