SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 30001, 30002, 30003 यावत् 40000 तक ग्रहण करता है। 30000 से लेकर 40000 के बीच के स्कन्ध को नंदी छोड़ेगा एवं 50000 या 100000 अगर परमाणु से निष्पन्न स्कन्धों को भी ग्रहण नहीं करेगा। मूल ग्रंथ का यह तात्पर्य निकालना बुद्धि की तीक्ष्णता एवं टीका की गहनता सूचित करती है। अन्य दिग्गज विद्वानों के मतों को बराबर समझकर उनका विशद् रीति से तर्कपूर्ण निरास किया है, जैसे जा जणवयसंके या, अत्थं लोगस्स पतियावेई। एसा जणवयं सच्चा पण्णता धीरपुरसेंहे।।23 11190 उपरोक्त गाथा नं. 23 की टीका में शब्दशक्ति को लेकर वर्धमानोपाध्याय के अन्वीक्षनियतत्त्वबोध, 'न्यायमंजरीकार', गदाधर के व्युत्पत्तिवाद वाक्यपदीय नृसिंहशास्त्री की मुक्तावलीप्रभा, मुक्तावलीदिनकरी एवं वृषभदेव के मतों का तर्कपूर्ण निरसन दृष्टिगोचर होता है। इनकी विशेषता यह भी है कि जैसे यह टीका विद्वद्भोग्य है, वैसे बालभोग्य भी है, क्योंकि प्रस्तुत टीका में स्वोपज्ञ विवरण को सम्पूर्ण रीति से समझाने की कोशिश की है। अरे! कहीं-कहीं तो पदों को इतनी विशद् रीति से समझाया है कि साधारण व्यक्ति भी उसे आसानी से समझ पाये। जैसे ग्रंथ की अवतरणिका में उपाध्याय ने दशवैकालिक सूत्र की चूर्णि के 'अणुवायेण' शब्द की टीका करते हुए एवं सुगमता से समझाने हेतु चूर्णिकार का तात्पर्य बताते हुए टीकाकार लिखते हैं अणुवायेण इति उपायविपर्ययेण उपायश्चावसरोचित सम्यगवचनप्रयोगादिरूपः तदुकतं धर्मबिन्दौ अनुपायातुं साध्यस्य सिद्धि नेच्छन्ति पण्डिताः। तथा च रत्नत्रय योगपष्टम्भक सम्यग्वचनप्रयोगाद्यर्य सम्यग्वचन विभागज्ञानभावश्यकमेवेति आचार्यस्योतर दाने तात्पर्यमिति भावः।। स्वोपज्ञ टीका के भाव को समझाते हुए सुन्दर प्रयत्न किया गया है, जैसे सा कोहणिस्सिया खलु कोहाविद्दो कहेइ जं भासं। जह ण तुमं मम पुतो अह्वा सव्वंपि तव्वयणं / / 40 / / . उपरोक्त गाथा नं. 40 की स्वोपज्ञ टीका में केवल इतना ही कहा है कि क्रोध से आकुल होकर जो पुरुष गाय को गाय कहता है, वह वचन भी असत्य ही है, ऐसा पूर्व महर्षियों का अभिप्राय है। यहाँ उपाध्यायजी ने स्पष्टीकरण किया है कि कौन-से महर्षि का ऐसा अभिप्राय है एवं किस ग्रंथ में इसका उललेख है। देखिए सम्प्रदाय इति। तदुक्तं वृद्धविवरणे श्री जिनदासमहतर गणिनां - तस्स कोहाउलाचिततणेणं घुणक्खरमिव तं अप्पमाणमेव भवति। जहा धुणकरवरे सच्चमपि पडियाणं चितगाहगं न भवति, कोवाकुलचितो जं संतमवि भासति तं मोसमेव भवति।। जैसे माला के बीच में मेरु सुशोभित होता है, सोने की चेन के बीच में रत्न शोभास्पद होता है, वैसे ही इस प्रौढ़ टीका के बीच-बीच में मनोविनोद हेतु प्रासंगिक मीमांसा भी अद्भुत कोटि की है, जैसे सा जायणी या णेया, जं इच्छिपयत्थणापरं वयणं। भतिपउता एसा, विणावि विसयं गुणोवेया।। 469 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy