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________________ आस्टिन तीनों कार्यों के सम्बन्ध के विषय में बहुत स्पष्ट नहीं है। यदि ऐसा लगता है कि तीनों कार्यों की वह वाक्कार्य के प्रकार मानता है किन्तु अन्त में वह कहता है-लोक्युशनरी एक्ट और इल्लोक्युनरी एक्ट केवल स्पीच एक्ट के पहलू हैं। प्रत्येक स्पीच एक्ट दोनों हैं। उसका उद्देश्य सम्पूर्ण वायु स्थिति. पूर्ण वाक्कार्य का स्पष्टीकरण करना है। आस्टिन की संक्षिप्त लिंग्विस्टिन फेनोमेनोलॉजी के पश्चात् एक-दो आपत्तियों का उल्लेख अवश्य हो जाता है। वाल्टर बर्कले के अनुसार साधारण भाषा में यापफार्मिंग ने एक्ट का प्रयोग प्रायः सर्कस तथा नाटकों इत्यादि में ही किया है, भाषा के विविध प्रयोगों के लिए नहीं। कोहेन के अनुसार आस्टिन अर्थ एवं इल्लोक्युशनरी फोर्स में अन्तर करता है, किन्तु अर्थ से भिन्न इल्लोक्युशनरी फोर्स मानने का कोई औचित्य नहीं है। आस्टिन अर्थ का संप्रत्यय स्पष्ट नहीं करता। संभवतः इसीलिए यह इल्लोक्युशनरी फोर्स का अस्तित्व मानता है। यदि अर्थ को व्यापक अर्थ में लिया जाए तो इल्लोक्युशनरी फोर्स की आवश्यकता नहीं रहती। कोहेन ने इल्लोक्युशनरी फोर्स मानने के अन्य कई कारण भी दिये हैं किन्तु उसके अनुसार इनमें कोई भी संतोषजनक नहीं है। आलोचनात्मक दर्शन 'हाऊ टु डु थिंग्स विद् वर्क्स' में आस्टिन मुख्य रूप से वाक्कार्यों का स्पष्टीकरण करता है और पारम्परिक दार्शनिक समस्याओं का बहुत ही कम उल्लेख हुआ है, किन्तु 'सेंस एण्ड सेंसिविलिया' में आस्टिन ज्ञानमीमांसा की एक मुख्य समस्या का स्पष्टीकरण करता है और उसकी आलोचना विशेषकर एअर, प्राइस एवं वार्नाक के विचारों पर केन्द्रित है। आस्टिन की विधि की सभी विशेषताएँ इस पुस्तक में विद्यमान हैं, किन्तु उनका क्रम बदल गया है। इसमें पहले यह पारस्परिक दार्शनिक सिद्धान्तों का उल्लेख करता है और फिर भाषित तथा अन्य वास्तविक तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए उन पारस्परिक सिद्धान्तों की कमियाँ दिखाता है। सेंस एण्ड सेंसिबितिया में आस्टिन भ्रमयुक्ति पर आधारित इस सिद्धान्त की परीक्षा करता है कि हम कभी अपरोक्ष रूप में जड़ वस्तुओं का प्रत्यक्ष नहीं करते। हमारा प्रत्यक्ष केवल इन्द्रिय प्रश्नों तक सीमित है। उसके अनुसार इस सिद्धान्त में दो मुख्य कारण हैं।”–प्रथम, केवल कुछ शब्दों पर ध्यान देना और उनमें प्रयोगों का अति सरलीकरण, ठीक ठीक न समझना या ठीक से वर्णन करना और द्वितीय केवल कुछ, अपूर्ण रंग में विश्लेषित तथ्यों पर विचार करना। हमारी साधारण भाषा के शब्द बहुत ही सूक्ष्म हैं तथा उनमें अनेक भेद निहित हैं। इसी प्रकार प्रत्यक्ष के तथ्य बहुत ही विविध तथा जटिल हैं। दार्शनिकों ने इन दोनों की उपेक्षा की है। सर्वप्रथम हम भ्रमयुक्ति को लेते हैं। आस्टिन के अनुसार इस युक्ति में कई गड़बड़ियां हैं। इसमें भ्रम (illusion) और मतिभ्रम (delusion) को मिला दिया जाता है। भ्रम की परिभाषा इस रूप में ही दी जाती है। जहाँ जड़ वस्तु न हो वहाँ जड़ वस्तु देखना किन्तु सभी भ्रम इस रूप में नहीं होते। उदाहरण के लिए जब एक रेखा दूसरी बराबर लम्बाई वाली रेखा से बड़ी दिखती है। भ्रम में उन उदाहरणों को भी सम्मिलित कर लिया जाता है, जो भ्रम हैं ही नहीं, जैसे किसी छड़ी का जल में झुकी हुई दिखाई पड़ना। इन कमियों के बाद आस्टिन विस्तार से उन शब्दों के प्रयोग में 464 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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