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________________ वे सभी निष्कर्ष सर्वप्रथम विंटगेस्टाइन ने रसल और मूर से भी अधिक साहस एवं स्पष्टता के साथ दार्शनिकों के समक्ष रखे और इन बातों पर भावी-दर्शन के लिए पूर्णतः नये मार्ग का निर्माण किया। किन्तु ट्रैकटेस में विंटगेस्टाइन प्रागनुभविक विश्लेषण के इतना प्रभाव में था कि वह स्वयं इनका पूरा महत्त्व न समझ सका। उसकी कुछ प्रमुख भूलें ये हैं 1. सार्थक भाषा केवल वर्णनात्मक है, वाक्यों की सार्थकता तथ्यों का चित्र होने में निहित है। 2. सरल पदों का अर्थ सरल वस्तुएँ हैं। 3. भाषा का तर्कीय रूप प्रच्छन्न रहता है और उसे सत्य व्यापारीय विश्लेषण से स्पष्ट किया जा सकता है। 4. अर्थ पूर्णतः निश्चित एवं स्पष्ट रहता है, अस्पष्ट अर्थ नहीं है। 5. अर्थ देने की क्रिया मानसिक है। स्वयं विंटगेस्टाइन ने 1933 के बाद इन त्रुटियों का निराकरण किया और इसके बाद साधारण भाषा दर्शन अपने पूर्ण रूप में प्रतिष्ठित हो गया। ट्रैकटेस के अभाव में दूसरी उत्पत्ति होती या नहीं, कहना कठिन है। - स्वयं विंटगेस्टाइन ने सरलवाक्यों को तर्कीय अनुभववादियों के निरीक्षण वाक्यों में परिवर्तित कर दिया। साथ ही उन्होंने ज्ञानमीमांसा की आवश्यकता भी स्वीकार की, क्योंकि निरीक्षण वाक्यों का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए ज्ञानमीमांसा किसी-न-किसी स्तर पर अनिवार्य हो जाती है। निजी-दर्शन के स्वरूप, भाषा के कार्य आदि विषयों पर तर्कीय अनुभववादियों ने विंटगेस्टाइन के विचारों को काफी हद तक स्वीकार किया। जॉन लैंगशा आस्टिन विंटगेस्टाइन के विपरीत आस्टिन ने दर्शन का विधिवत् अध्ययन किया था और उसकी शिक्षा अरस्तू की परम्परा में हुई थी। उसे भाषाविज्ञान का अच्छा ज्ञान था, जिसका उसके अपने दर्शन में भरपूर उपयोग किया। उसका विश्वास था कि दार्शनिक समस्याएँ एवं उनके समाधान अस्पष्ट हैं और इसका मूल कारण सभी तथ्यों पर ध्यान न देकर जल्दबाजी में सिद्धान्तों की रचना करना है। उनके अनुसार दर्शन में प्रगति तभी हो सकती है, जब अनेक प्रश्न उठाये जायें, अनेक तथ्यों का सर्वेक्षण किया जाए तथा अनेक युक्तियों का विस्तार से विश्लेषण किया जाए। आस्टिन का दर्शन अंग्रेजी भाषा में उसे यथावत् नहीं व्यक्त किया जा सकता। उसका संक्षिप्तिकरण किया जा सकता है। यहाँ हम तीन विषयों पर विचार करेंगेविधि-रचनात्मक दर्शन और आलोचनात्मक दर्शन। विधि : एक-दो लेखों को छोड़कर कहीं भी आस्टिन सीधे दार्शनिक-समस्याओं को नहीं उठाता। पहले वह सम्बन्ध क्षेत्र का पूर्ण सर्वेक्षण करता है और केवल प्रासंगिक अवसरों पर उनका उल्लेख करता है। 'एफस एण्ड कैस'162 में उसका बयान कुछ अतिरंजित है। साधारणतया वह यही मानता है कि उसकी विधि दर्शन में निश्चित परिणाम उत्पन्न करती है। किन्तु यही एकमात्र विधि नहीं है। यह विधि उसकी रुचि एवं शिक्षा के अनुरूप थी तथा वह इससे इतना प्रभावित था कि अन्य किसी विधि की स्पष्ट कल्पना भी नहीं कर सकता था। यह विधि साधारण भाषा के विस्तृत सर्वेक्षण पर आधारित है। उसके अनुसार निश्चित ही साधारण भाषा अन्तिम शब्द नहीं है। सिद्धान्त में इसे सर्वत्र सम्पूर्तित और संशोधित किया 461 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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