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________________ पर प्रश्न है कि क्या तार्किक दृष्टि से विशोधित भाषा के माध्यम से विश्व के विभिन्न गुणों के बारे में अनुमान किया जा सकता है? अन्य शब्दों में, क्या तार्किक दृष्टि से विशोधित भाषा को हम एक अन्तिम आधार वाक्य के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, ताकि उसमें हम विश्व में विभिन्न गुणों को निष्कर्षित कर लें। रसल ने सीधे-सीधे इस संभावना को स्वीकार नहीं किया है। पर उन्होंने यह स्वीकार कर लिया है कि यदि वस्तुओं के बारे में कुछ विशेष तरीके से कुछ कहना हमारे लिए आवश्यक है, तो हम यह सोच सकते हैं कि उपरोक्त आवश्यकता का उन वस्तुओं में ही आधार है। उदाहरणार्थ-जब हम यह कहते हैं कि "चीजें एक जैसी हैं" तो यह बहुत सम्भव है कि कुछ चीजें इस प्रकार की हैं कि उन्हें हम एक जैसी कह सकते हैं। इस प्रकार विश्व की विभिन्न वस्तुओं के गुणों के रूप में समानता को हम भाषा के आधार पर अनुमित कर सकते हैं। पर विश्व की वस्तुओं को अन्ततः हम अनुभव के आधार पर ही मानते हैं। रसल एक ऐसी पूर्ण भाषा को प्राप्त करना चाहते थे, जिसमें भ्रमित करने वाले संकेतों का या अनिश्चित अर्थों का अभाव. हो। ऐसा होने से भाषा के माध्यम से उत्पन्न होने वाली गड़बड़ी और दार्शनिक के कथनों की एक से अधिक व्याख्याओं से बचने में सहायता मिलती है। रसल का विश्वास था कि दार्शनिक की भाषा को साहित्यिक या गणितीय नहीं होना चाहिए, उसे तो विशुद्ध एवं तर्कसंगत होना चाहिए और उसमें सत्य को ही प्रस्तुत करने की बात प्रमुख होनी चाहिए। 45 रसल के बाद जो दार्शनिक आये, उन्होंने इस बात को तर्क के आधार पर सिद्ध करना चाहा कि किसी भी तथ्यात्मक तर्क-वाक्य का कोई सार्थक अर्थ तब तक नहीं हो सकता जब तक कि किसी संभव निष्कर्ष को, जिससे यह संभावित हो सके, उससे अनुमित न किया जा सके। उन्होंने अपने निष्कर्ष / को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि इस अर्थ में किसी भी तत्त्वमीमांसीय कथन का कोई तथ्यात्मक अर्थ : सम्भव नहीं है। रसल तर्कीय प्रत्यक्षवाद के इस सिद्धान्त से प्रभावित तो थे पर उसके बाद के विकासों को स्वीकार करना उनके लिए सम्भव न था। इन विकासों का सम्बन्ध मुख्यतः दो बातों से था-सर्वप्रथम तर्कीय परमाणुवाद को ही एक निरर्थक तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त के रूप में अस्वीकृत करने से और दूसरी यह कि प्रतिमान के रूप में भाषा के उपयुक्त प्रयोग के लिए सामान्य भाषा की स्वीकृति। रसल ने . इसका विरोध किया। यद्यपि उन्होंने ही अपने चिन्तन में उसमें मूल स्रोतों को प्रस्तुत किया था। जार्ज एडवर्ड मूर मूर की रुचि विश्व रचना या विज्ञानों में नहीं थी। मूर की समस्या विभिन्न दार्शनिकों के कथनों को लेकर है। विशेषता दो कारणों से है 1. दार्शनिकों के सिद्धान्तों में साम्य का अभाव और 2. दार्शनिक वाक्यों का सामान्य बुद्धि से विरोध। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण मूर की दृष्टि में प्रश्नों को बिना समझे हुए उनका उत्तर देने का प्रयास है। मूर ने प्रिंसिपिया एथिका की भूमिका में लिखा है-ऐसा मुझे प्रतीत होता है कि नीतिशास्त्र तथा अन्य सभी दार्शनिक अध्ययनों में कठिनाइयाँ तथा मतभेद, जिनसे इनका इतिहास भरा है, मुख्यतः एक बहुत ही सरल कारण का परिणाम है, अर्थात् बिना यह समझे हुए कि निश्चित रूप से हम किस प्रश्न का उत्तर चाहते हैं, उत्तर देने का प्रयास करना / 16 अतः मूर के दर्शन के मुख्य उद्देश्य थे-दार्शनिक प्रश्नों, कथनों एवं सिद्धान्तों के स्वरूप नष्ट करना तथा दर्शनिक सिद्धान्तों के विरोध में सामान्य बुद्धि के तथ्यों की स्थापना करना। उनके अनुसार बहुत 458 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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