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________________ महेनत करके Ph.d. तक आगे बढो। आपको जो भी सहयोग चाहिए वो तन-मन-धन सभी प्रकार के सहयोग देने के लिए हम सब तैयार है। अतः मैं उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। मद्रास केललितभाई मंडोत एवं मंजुलादेवी मंडोत ने तो मुझे अपनी बेटी का उत्तरदायित्व देकर समय समय पर मेरे लिए खडे पग रहे। जब प्रथम चातुर्मास मद्रास किया था। तब मेरी आँख की तकलीफ हुई थी, तब भी मेरे से ज्यादा मेरे आख की उन दोनों न परवाह की थी। और समय एवं धन का सद्व्यय करके मेरी आँखों की रोशनी वापीस लाई थी। वैसे ही जब दूसरा चातुर्मास मद्रास में हुआ तब मैंने 73 उपवास किया था। तब भी उन्होंने उमंग-उत्साह से वैयावच्च का लाभ उठाया था। वो मेरे लिए अनुमोदनीय एवं अविस्मरणीय है। साथ-साथ ये Ph.d. तक पहुंचाने में जो भी सहयोग दिया है वो मैं शब्दों में बयान नहीं कर सकती। अतः इस अवसर पर मैं उन्हें प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। और मैं आजिवन ऋणी रहंगी। मैं राजेन्द्रसूरि त्रिस्तुतिक जैन संघ-अमदावाद की आजीवन ऋणी रहूँगी। क्योंकि अमदावाद चातुर्मास में जब इन्टरव्यु हुआ और डिग्री मिली उस समय संघने पूर्ण सहयोग दिया / और इस महा शोधप्रबंध को बुक का स्वरूप देने में सुकृत सहयोगी के रूप में श्री राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्टने ही लाभ लिया। वो मेरे लिए अविस्मरणीय है। इस संघ के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करती हूँ। इसी अवसर पर मद्रास के सत्यविजयजी हरण, सुरत के प्रकाशभाई पारेख, सियाणा के दीपचंदजी बाफना एवं जयंतीलालजी गांधी, वापी के अरवीन्दजी जैन, अहमदाबाद के प्रवीणभाई अध्यापक एवं कर्णिकभाई को भी विस्मृत नहीं कर सकती। क्योंकि उन्होंने भी अपनी ज्ञानभक्ति एवं गुरुभक्ति का समय समय पर लाभ उठाया है। अतः उनके प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूं। भैया नरेन्द्रभाई नाहर के द्वारा शोध-प्रबन्ध पूर्ण करने में दिया गया सहयोग अविस्मरणीय है। उनकी सदा यही भावना रहती थी कि जितनी समय-मर्यादा है, उनसे पहले कार्य निष्पन्न होना चाहिए, तब जाकर उस कार्य की विशिष्टता रहती है। वे सदा कहते रहते कि आप जल्द से जल्द पी-एच्.डी. करो, आपको जो भी साथ, सहकार, सहयोग चाहिए, वो तन, मन एवं धन से देने के लिए तैयार हैं। उनकी ज्ञान के प्रति रही हुई भावना, भक्ति अनुमोदनीय है। करीबन 10 माह में 9 अध्याय का सम्पूर्ण शोध-लेखन करना मेरे लिए नामुमकिन नहीं, पर असंभव जैसा ही था। फिर भी अगर पूर्ण हुआ है तो उनका श्रेय नरेन्द्रभाई को ही है। उन्होंने समय-समय पर मुझे समय की महत्ता को बताते हुए कहीं बातों में समय न चला जाए, उन बातों पर विशेष रूप से समझाकर मेरे मार्गदर्शक बने हैं। वह मुझे बराबर कहते थे कि आज के दिन में इतने पेज तो लिखने ही हैं, उसी तरह लिखती गई तो करीबन 10 माह के अन्तर्गत यह कार्य पूर्ण हो सका। पर कम्प्यूटराईज कराने, प्रूफ चेक करने में, कुरियर की असुविधा एवं विहारों के कारण थोड़ा और समय लग गया। आज जो भी है, वो उनकी की शुभकामनाओं का फल है। मैं तो उनको आज भी निवेदन कर रही हूँ कि सदैव आपकी दुआएँ एवं शुभकामनाएँ बनी रहें। इस अवसर पर मैं आपके प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापित कर रही हूँ। . इस शोध-ग्रंथ के लिए जिन-जिन ग्रंथों को पढा, पत्र-पत्रिकाएँ, निबंध, लेख, जिनसे सन्दर्भ लिए, जिनसे प्रेरणा मिली, शोध-पथ को सुलभ बनाया, उन सभी की मैं हृदय से कृतज्ञता व्यक्त करतो हूँ। . अमदावाद वाले भरत ग्राफिक्स ने कम्प्यूटर टंकण के द्वारा इस शोध-प्रबंध को साकार रूप दिया। अतः मैं उनका भी आभार व्यक्त करती हूँ। इनके अलावा इस शोध-ग्रंथ के लिए मुझे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सहायता करने वाले सारे साधु-साध्वियाँ और बंधु-बहिनों का मैं मनःपूर्वक आभार व्यक्त करतो हूँ। -साध्वी अमृतरसाश्री VIII Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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