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________________ - वेश के आधार पर व्यक्ति को उस नाम से पुकारना रूपसत्य है। चाहे वस्तुतः वह वैसा न हो, जैसे नाटक में राम अभिनय करने वाले व्यक्ति को 'राम' कहना या साधुवेशधारी को साधु कहना। 6. प्रतीति सत्य-प्रतीत्य सत्य भाषा का निरूपण करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है अविरोहेण विलकखणपडुच्च भावाण दंसिणी भाषा। भन्नइ पड्डुच्च सच्चा; जह एगं अणु महंतं च।।28 1180 अर्थात् विलक्षण प्रतीत्यभावों को बिना विरोध के बताने वाली भाषा प्रतीत्यसत्य भाषा कही जाती है, जैसे कि एक ही वस्तु को अपेक्षाभेद से अणु और महान् कहने वाली भाषा। सापेक्षिक कथन अथवा प्रतीति को सत्य मानकर चलना प्रतीत्व सत्य है, जैसे-अनामिका बड़ी है, मोहन छोटा है आदि। इसी प्रकार आधुनिक खगोल विज्ञान की दृष्टि से पृथ्वी स्थिर है। यह कथन भी प्रतीत्य सत्य है, वस्तुतः सत्य नहीं। 7. व्यवहार सत्य-व्यवहार सत्य को परिभाषित करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है - ववहारो हु विवकरवा, लोगाणं जा पउज्जण तीए। पिज्जर नई व डज्झइ गिरिति ववहारसच्चा सा।।31 / / " अर्थात् लोगों की विवक्षा ही व्यवहार है। उस विवक्षा से जिस भाषा का प्रयोग होता है, वह भाषा व्यवहार सत्य है, जैसे कि नदी पी जाती है, पर्वत जलता है। व्यवहार से प्रचलित भाषायी प्रयोग व्यवहार सत्य कहे जाते हैं। यद्यपि वस्तुतः ये असत्य होते हैं, जैसे-घड़ा झरता है, बनारस आ गया। वस्तुतः घड़ा नहीं पानी झरता है, बनारस नहीं आता, हम बनारस पहुंचते हैं। ___8. भाव सत्य-भाव सत्य भाषा को परिभाषित करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है सा होई भावसच्चा जा सदभिप्पायपुव्वमेवुता। जह परमत्थो कुंभो सिया बलाया य एसति।।32 / / 82 अर्थात् सभिप्राय पूर्वक ही बोली गई भाषा भावसत्य होती है, जैसे कि पारमार्थिक कुंभ और सफेद बगुला ये वचन। किसी एक गुण की प्रमुखता के आधार पर वस्तु को वैसा कहना भाव सत्य है, जैसे-अंगूर मीठे हैं। यद्यपि उनमें खट्टापन भी रहा हुआ है। 9. योग सत्य-योग सत्य का निरूपण करते हुए उपाध्यायजी ने कहा है सा होइ जोगसच्चा उवयारो जत्थ वत्थुजोगम्मि। छताइअभावे वि हु जह छती कुंडली दंडी।।33 118 अर्थात् जिस भाषा में वस्तु का योग होने पर उपचार होता है, जैसे कि छत्र आदि के अभाव में भी यह छत्री है, यह कुंडली है, यह दंडी है, इत्यादि भाषा। वस्तु के संयोग के आधार पर उसे उस नाम से पुकारना योग सत्य है, जैसे-दण्ड धारण करने वाले को दण्डी कहना या जिस घड़े में घी रखा जाता है, उसे घी का घड़ा कहना। 10. उपमासत्य-औपम्य सत्य भाषा को परिभाषित करते हुए उपाध्यायजी कहते हैं कि औपम्य का अर्थ है-उपमा, जो कि उपमान से सापेक्ष होती है, जैसे कि चाँद-सा मुँह। यहाँ चाँद उपनाम है 441 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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