________________ नाम दे दिये हैं और इन्हीं नामों के माध्यम से हम अपने भावों, विचारों एवं तथ्य संबंधी जानकारियों का सम्प्रेषण दूसरों तक करते हैं। उदाहरण के लिए हम टेबल शब्द से एक विशिष्ट वस्तु को अथवा करुणा या वात्सल्य शब्द से एक विशिष्ट भावना को सांकेतित करते हैं। मात्र यही नहीं, व्यक्तियों, वस्तुओं, गुणों, तथ्यों, घटनाओं, क्रियाओं एवं भावनाओं के लिए एवं उनके पारस्परिक विभिन्न प्रकार के सम्बन्धों के लिए अथवा उन सम्बन्धों के अभाव के लिए भी हमने शब्द प्रतीक बना लिये हैं और भाषा की रचना इन्हीं सार्थक शब्द-प्रतीकों के ताने-बाने से हुई है। भाषा शब्द-प्रतीकों की वह नियमबद्ध व्यवस्था है, जो वक्ता के द्वारा सम्प्रेषणीय भावों का ज्ञान श्रोता को कराती है। भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करने वाली ज्ञान की दो शाखाएँ हैं-भाषा विज्ञान और भाषा-दर्शन। यद्यपि भाषा-विज्ञान और भाषा-दर्शन दोनों ही भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में विचार करते हैं। दोनों के अध्ययन की विषय-वस्तु भाषा ही है। यह भी सत्य है कि दोनों किसी भाषा विशेष को अपने अध्ययन का विषय न बनाकर भाषा के सामान्य तत्त्वों का ही अध्ययन करते हैं, फिर भी दोनों की मूलभूत समस्याएँ और अध्ययन की दृष्टियां भिन्न-भिन्न हैं। भाषा-विज्ञान मुख्यतः भाषा की संरचना तथा भाषा एवं लिपि के विकास का अध्ययन करता है, जबकि भाषा दर्शन मुख्य रूप से भाषा की वाच्यता-सामर्थ्य, शब्द और उसमें वाच्यार्थ का सम्बन्ध एवं कथन की सत्यता की समीक्षा करता है। इस प्रकार भाषा दर्शन भाषा-विज्ञान से भिन्न है, क्योंकि वह भाषा के सम्बन्ध में दार्शनिक समस्याओं पर ही विचार करता है, जबकि भाषा-विज्ञान मुख्यतः भाषा की संरचना एवं स्वरूप पर विचार करता है। भाषा और शब्द प्रज्ञापना सूत्र का प्रथम प्रश्न भाषा के प्रादुर्भाव से संबंधित है तो दूसरा प्रश्न भाषा की अभिव्यक्ति से संबंधित है। भाषा की अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में महावीर का प्रत्युत्तर यह था कि भाषा शरीर से अर्थात् शारीरिक प्रयत्नों से उत्पन्न या अभिव्यक्त होती है। जैन दार्शनिकों ने शब्दों को दो विभागों में बांटा है-प्रायोगिक और वैस्त्रसिक। साथ ही यह भी माना है कि भाषा प्रायोगिक शब्दों से ही बनती है; वैस्त्रेसिक शब्दों से नहीं। भाषा जीव के शारीरिक प्रयत्नों का परिणाम है। अतः प्रज्ञापना का यह कथन समुचित ही है कि भाषा शरीर से उत्पन्न होती है। भाषा के लिए न केवल इन्द्रिय युक्त शरीर आवश्यक है अपितु वक्ता और श्रोता में बुद्धि या विचार-सामर्थ्य का होना भी आवश्यक है। भाषा श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान अनिवार्य रूप से मतिज्ञान पूर्वक ही सम्भव है, पुनः मतिज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन का होना आवश्यक है। अतः भाषा चाहे वह ध्वनि संकेत के रूप में हो या अन्य शारीरिक संकेतों के रूप में हो, वह इन्द्रिय और बौद्धिक मन के माध्यम से ही सम्भव होती है। जीव के अपने शरीर के माध्यम से भावनाओं एवं विचारों की अभिव्यक्ति के जो प्रयत्न होते हैं, वे ही भाषा का रूप ग्रहण करते हैं और यही भाषा की उत्पत्ति, अभिव्यक्ति का आधार है। इस दृष्टि से प्रज्ञापना का यह कथन कि भाषा की उत्पत्ति शरीर/शारीरिक प्रयत्नों से होती है, समुचित ही है। यद्यपि सभी प्रकार के शारीरिक संकेतों से होने वाले अर्थबोध को भाषा कह सकते हैं, किन्तु सामान्यतया जब हम मानवीय सन्दर्भो में भाषा की बात करते हैं तो हम उसमें सभी प्रकार के शारीरिक संकेतों का समावेश न करके केवल ध्वनि-संकेतों का समावेश करते हैं। इस दृष्टि से मानवीय भाषा अक्षरात्मक या शब्दात्मक कही जा सकती है। यद्यपि यह सत्य है कि शब्द भाषात्मक होती है किन्तु सभी शब्द भावनात्मक नहीं होते हैं। जैन चिन्तकों ने शब्दों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया है 416 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org