SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 469
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में लब्धियाँ वैदिक एवं बौद्ध योग की ही भांति जैन योग में भी तप, समाधि, ध्यानादि द्वारा अनेक प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त करने का वर्णन मिलता है। जैन दर्शन में भी आवश्यकनियुक्ति तथा उसी पर रचित जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण द्वारा रचित विशेषावश्यकभाष्य में आगमौषधि आदि लब्धियां योगदशा में प्राप्त होती हैं, यह बताया है। अन्य जैन आगमौषधि, विपौषधि, श्लेष्मोषधि, जल्लौषधि, सम्भिन्नश्रोतोपलब्धि, ऋजुमति सर्वोषधि, चारणलब्धि, आशीविषलब्धि, केवलिलब्धि तथा मनःपर्यवज्ञानित्व, पूर्वधरत्व, अरिहंत्व, चक्रवर्तित्व, बलदेवत्व, वासुदेवत्व, वासुदेवत्व इत्यादि लब्धियां भी आत्मा को योग प्रभाव से प्राप्त होती है। योगवृद्धि के बल से ऐसी लब्धियां और सिद्धियां प्राप्त होती हैं तो शोभन आहार की प्राप्ति तो सामान्य वस्तु है। पातंजल योगदर्शन में आम!षधि आदि लब्धियों का वर्णन नहीं मिलता है। अन्य जैनयोग ग्रंथों की अपेक्षा ज्ञानार्णव एवं योगशास्त्र में लब्धियों का विवेचन स्पष्ट एवं विस्तृत रूप में हुआ है। इन दोनों ग्रंथों में विस्तारपूर्वक विभिन्न प्रकार की लब्धियों और चमत्कारिक शक्तियों का वर्णन है। जैसे जन्म-मरण का ज्ञान, शुभ-अशुभ शुक्नों का ज्ञान, परकाया प्रवेश कालज्ञान आदि। लब्धियों के प्रकार जैन योग ग्रंथों में लब्धियों के प्रकारों के विषय में विभिन्न प्रतिपादन है। भगवतीसूत्र में जहाँ दस प्रकार की लब्धियों का उल्लेख है, वहाँ तिलोयपण्णति+65 में 64, आवश्यकनियुक्ति+66 में 28, षट्खण्डागम7 में 44, विद्यातुशासन में 48, मंत्रराजरहस्य68 में 50 एवं प्रवचनसारोद्धार6 में 28 लब्धियों का वर्णन है। संक्षेप में उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-ध्यातव्य है कि इन लब्धियों की प्राप्ति जैन योग-साधना का बाह्य अंग है, आन्तरिक नहीं, क्योंकि योग-साधना का मूल उद्देश्य कर्म एवं कषायादि का क्षय करके सम्यक् दर्शन ज्ञान तथा सिद्धि रूप में मोक्ष प्राप्त करना है। जैन दर्शन के अनुसार लब्धि प्राप्ति के लिए कुछ करने की आवश्यकता नहीं, वे तो प्रासंगिक फल के रूप में स्वतः निष्पन्न या प्रकट होती हैं। अतः साधक अथवा योगी इन लब्धियों से युक्त होकर भी कर्मों के क्षय का ही उपाय करते है+70 तथा मोक्षपथिक बनते हैं। वे लब्धियों में अनासक्त रहकर आत्म-साधना में लगे रहते हैं। यशोविजय का योग वैशिष्ट्य उपाध्याय यशोविजय ने योग को अनेक वैशिष्ट्य से विशिष्ट बनाया है। उनका अपना वैदुष्य विरल एवं विशाल था। अपने आत्म-वैदुष्य से उन्होंने योग को समलंकृत बनाया। उन्होंने हरिभद्रसूरि जैसे ही योग के विषय के सम्बन्ध में ऐसी श्रेष्ठ कृतियों की रचना की है, जो योग परम्परा में आज भी अद्वितीय विशेषता रखती है। उपाध्यायजी का चिन्तन बड़ा उर्वर और विशिष्ट रहा है। उन्होंने जैन तत्त्वों और साधना की पद्धतियों को अनेक रूपों में व्याख्यायात करने का सत्प्रयास किया है, जिससे भिन्न-भिन्न रुचि के साधक अपनी-अपनी भावानुसार साधना का मार्ग अपना सकें। तत्त्वज्ञान विषयक स्वग्रंथों में उन्होंने तुलना एवं बहुमानवृत्ति द्वारा जो समत्व भाव दर्शाया है, उस समत्व की प्रकर्षता उनके योग विषयक ग्रंथों में प्रस्फुटित होती है। उपाध्याय यशोविजय ने योगपरक ग्रंथ, जैसे-अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीशी, पातंजल योगसूत्रवृत्ति, योगविंशिका की टीका तथा आठ दृष्टि की सज्झायमाला आदि की रचना की है। 394 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy