________________ विभिन्न प्रकार की लब्धियों का वर्णन उपनिषदों, गीता, पुराण एवं हठयोगादि ग्रंथों में है, जिनका विवेचन, विश्लेषण करना यहाँ अभीष्ट नहीं है। यहाँ केवल योगदर्शन में वर्णित लब्धियों का परिचय ही अभिप्रेत है। योगदर्शन में लब्धियाँ रत्नादि लब्धियों का वर्णन महर्षि पतंजलि प्रणित योग दर्शन में मिलता है स्थान्युपनिमन्त्रणो संगस्मयाकरणं पुनरनिष्टाप्रसऽगत् / / योगी महात्मा जब योग अवस्था में आरूढ़ होते हैं तब उस स्थानगत देव योगी को योगमार्ग से विचलित करने, अप्सरादि का वर्णन पूर्वक दैविक योगों को उपनिमंत्रण करते हैं तब दैविक भोगों के संग का अकरण तथा मेरे योग का कैसा प्रभाव है कि देवता भी मुझे निमंत्रण देते हैं, इत्यादि अभिमान नहीं होना चाहिए। कारण कि दैविक संग और योग दशा का अभिमान पुनः अनिष्ट का ही कारण बनता है। अतः इनसे विरक्त आत्मा को ही योगदृढ़ता से लब्धियां प्राप्त होती हैं। , योगदर्शन के प्रभाव से अणिमादि लब्धियों का प्रादुर्भाव होता है तथा प्रकाम्य आदि सिद्धियां प्राप्त होती हैं 1. अणिमा-स्थूल शरीर को छोटा बना सकते हैं। 2. लघिमा-गुरु शरीर को हल्का बनाना। . 3. महिमा-विस्तार वाला शरीर बनाना। 4. प्राप्ति-भूमि पर स्थित रहा हुआ अपनी अंगुली के अग्रभाग से सूर्य-चन्द्र को स्पर्श करना। 5. प्राकाम्य-पानी के समान भूमि में उतर जाना। 6. इशित्व-भौतिक पदार्थों की उत्पत्ति-नाश द्वारा स्वयं की रचना करना। 7. वशित्व-भौतिक पदार्थों के परवश नहीं रहना। 8. कामावसायित्व-अपनी इच्छानुसार संकल्पमात्र से भूतों में रचना कर सके।458 इनके अतिरिक्त भी योगदर्शन में यम, नियमादि जो योग के आठ अंग कहे गये हैं, उनमें से प्रत्येक अंग की साधना से आभ्यंतर एवं बाह्य दोनों प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। इस प्रकार योगदर्शन में अनेक विभूतियों या लब्धियों का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, जिनकी सिद्धियां जन्म, औषध, मन्त्र, तप, समाधि आदि से प्राप्त होती है।150 बौद्ध योग में लब्धियाँ बौद्ध परम्परा में लब्धियों का वर्णन अभिज्ञा नाम से मिलता है। इनके अनुसार अभिज्ञाएँ अर्थात् लब्धियाँ दो प्रकार की हैं-लौकिक और लोकोत्तर।460 लौकिक अभिज्ञाओं के अन्तर्गत ऋद्धिविध, दिव्यस्तोत्र, आकाशगमन, पशु-पक्षी की बोलियों का ज्ञान, परिचित विज्ञानता, पूर्वजन्मों का ज्ञान तथा दूरस्थ वस्तुओं का दर्शन होता है। लोकोत्तर अभिज्ञा की प्राप्ति तब होती है, जब साधक अर्हत् अवस्था को प्राप्त करके पुनः जनसाधारण के समक्ष निर्वाण मार्ग को बतलाने के लिए उपस्थित होता है। - 393 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org