SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के नाम से बताया गया है। इसी बात का उल्लेख उपाध्याय यशोविजय ने आठ दृष्टि की सज्झाय में बताया है विसभागक्षय शान्तवाहिता, शिवमारग धुवनाम। कहे असंगक्रिया इहां योगी, विमल शुयश परिणाम रे।।" -भाविका।। अतः यहाँ साधक का प्रातिभज्ञान या अनुभूति प्रसूतज्ञान इतना प्रबल एवं उज्ज्वल हो जाता है कि उसे शास्त्र का प्रयोजन नहीं रहता। ज्ञान की साक्षात् उपलब्धि उसे हो जाती है। आत्मसाधना की यह बहुत ही ऊँची स्थिति होती है। ऐसी उत्तम, अविचल, ध्यानावस्था से आत्मा में अपरिमित सुख का स्रोत फूट पड़ता है।45 8. परा दृष्टि यह अन्तिम दृष्टि है, जिसमें समाधिनिष्ठता प्राप्त होती है। आध्यात्मिक उत्क्रान्ति की यह सर्वोच्च अवस्था है। इस दृष्टि से ज्ञानबोध की समानता चन्द्र द्वारा प्राप्त प्रकाश से की है।46 यहाँ योग का आठवां अंग समाधि सिद्ध हो जाता है। उपाध्याय यशोविजय ने परादृष्टि को परिभाषित करते हुए आठ दृष्टि की सज्झाय में कहा है दृष्टि आठमी सार समाधि, नाम परा तस जाणुं जी, आप स्वभावे प्रवृत्ति पूरण, शशिसम बोध वखाणुजी।। निरतिचार पर एहमां योगी कहीए नहीं अतिचारीजी। आरोहे आरुढे गिरीने, तेम एटनी गति न्यारी जी।।47 यह अन्तिम दृष्टि है, जिसकी उपमा चन्द्रमा की प्रभा से दी गई है। जो शीतल, सौम्य तथा शांत होता है और उसके लिए आनन्द, आह्लाद और उल्लासप्रद होता है। जिस प्रकार चन्द्रमा की ज्योत्सना सारे विश्व को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार चन्द्रमा की ज्योत्सना के समान परादृष्टि में प्राप्त बोधप्रभा समस्त विश्व को जो जेयात्मक है, उद्योतित करती है। इसमें परमतत्त्व को साक्षात्कार होता है। यह दृष्टि समाधि की अवस्था मानी गई है, जिसमें मन के सभी व्यापार अवरुद्ध हो जाते हैं और आत्मा केवल आत्मा के रूप को देखती है। ध्यान करते-करते जब चित्त ध्येय के आकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरूप का अभाव हो जाता है, ध्येय से भिन्न उपलब्धि अनुभूति नहीं रहती, उस समय वह ध्यान समाधि कहलाता है। उपाध्याय यशोविजय की परादृष्टि की तुलना पतंजलि योग समाधि से की जा सकती है। जैसे वस्तु सम्पूर्ण स्वयं प्रकाशित होती है, उस तरह समाधि होती है।450 पूर्ण अंतःस्थल तक की समाधि में मन भी ध्यान समाधि के आकार में लीन हो जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उपाध्याय यशोविजय ने गुणस्थान के आधार पर आध्यात्मिक विकास की आठ दृष्टियों का वर्णन किया है। परन्तु यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित जान पड़ता है कि गुणस्थानक तथा उपर्युक्त आठ दृष्टियों में कोई असमानता नहीं है, क्योंकि प्रथम चार दृष्टियों में प्रथम तीन गुणस्थानक, 5, 6 दृष्टि में 4 व 7 गुणस्थानक तथा अन्तिम यानी दृष्टि में 8 से 14 गुणस्थानक का समावेश हो जाता है।452 - 391 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy