SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 465
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में द्वेषभाव उत्पन्न नहीं होता। प्रीति उमड़ती है। इस दृष्टि में साधक को योग का छठा अंग धारणा सिद्ध हो जाता है।35 महर्षि पतंजलि ने धारणा का लक्षण बताते हुए लिखा है कि नाभिचक्र, हृदय-कमल आदि देह के आंतरिक स्थानों और आकाश, सूर्य, चन्द्रमा आदि बाहर के पदार्थों में से किसी एक पर चित्तवृत्ति को लगाना धारणा है। कान्तादृष्टि योगी का ज्ञान प्रकाश आकाश के ताराओं के प्रकाश के समान स्थिर, शान्त और दीर्घकालीन होता है।57 इस दृष्टि में साधक धर्म की गरिमा को बहुमान देता है। सम्यक् आचार विशुद्धि में जागरूक रहता है। उसका मन धर्म में एकाग्र या तन्मय हो जाता है। आत्म भाव की ओर आकृष्ट रहता है। अनासक्त भाव से वह सांसारिक कार्य करता है अतः सांसारिक भोग उसके भवभ्रमण के हेतु नहीं बनते। इस दृष्टि से साधक को शान्त, धीर एवं परम आनन्द की अनुभूति होने लगती है। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर आदि दोषों का सर्वथा परिहार हो जाता है। अतः यह दृष्टि साधक के शान्त एवं निर्मलचित्त की प्राप्ति में सहायक होती है और आगे की दृष्टियों की पूर्णता में प्रमुख भूमिका निभाती है।439 7. प्रभा दृष्टि यह सातवीं दृष्टि है। इस दृष्टि की उपमा सूर्य के प्रकाश से दी गई है। उपाध्याय यशोविजय ने प्रभादृष्टि का वर्णन करते हुए आठ दृष्टि की सज्झाय में कहा है अर्कप्रभा सम बोध प्रभामां, ध्यानक्रिया ए दिट्ठि। तत्वतणी प्रतिपति इहा, वली दोग नहीं सुखापुटी रे।। -भविका, वीर वचन चित धरीए। 10 इस दृष्टि में सूर्य की प्रभा समान बोधज्ञान प्राप्त होता है। ध्यान नाम का योगांग प्राप्त होता है। तत्त्व का स्वीकार रूप प्रतिपाति नाम का गुण प्राप्त होता है और रोग दोष नष्ट होता है, जिसमें ... आत्मिक सुख की पुष्टि होती है। इस दृष्टि में साधक ध्यानप्रिय होता है। योग का सातवां अंग ध्यान इसमें सिद्ध हो जाता है। शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि विषयों को वह जीत लेता है। साधक में प्रशांत भाव की प्रधानता होती है। इस दृष्टि में आत्मत्व का दर्शन प्राप्त होता है। आत्मदर्शन से आत्मविभोर बन जाता है। यहाँ योगी का चित्त पूर्णतया निरोगी बनता है अर्थात् चित्त का एक भी विकार नहीं होता है। ध्यान का प्रकार सारासार ज्ञान पर अवलम्बित है। पतंजलि में भी ऐसा स्वरूप दर्शन होता है। सातवां योगांग ध्यान ही है। ध्यान का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि जहाँ चित्त को लगाया जाए, उसी में प्रत्ययैकतानता-वृत्ति का एक तार की तरह निरन्तर चलते रहना ध्यान है अर्थात् जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाए, उसी में उसे एकाग्र करना, केवल ध्येय मात्र की एक ही प्रकार की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके मध्य किसी भी प्रकार की अन्य प्रवृत्ति का न उठना ही ध्यान है। यहाँ से मोक्षमार्ग का श्रीगणेश होता है। असंगानुष्ठान चार प्रकार के होते हैं-प्रीति, भक्ति, वचन और असंगानुष्ठान। जिसे योगदृष्टि समुच्चय में प्रशांतवाहिता, विसंभाग-परिक्षय, शैववर्त्य और धुवाध्वां 390 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy