________________ संसार में राग के अनेक साधन हैं। उसमें सर्वोच्च कक्षा का राग स्त्री है। साधक स्त्री संबंधी राग होने पर सम्यग्बुद्धि पूर्वक उस स्त्री के शरीर का स्वरूप चिंतन करता है कि यह शरीर कीचड-मांसरुधिर-अस्थि तथा विष्टामय मात्र ही है। शारीरिक रोग और वृद्धत्व रोग के परिणाम हैं तथा नरकादि दुर्गतियों की प्राप्ति विपाक स्वरूप है। इसी प्रकार धर्माजन सैकड़ों दुःखों से युक्त है। यह इसका स्वरूप है तथा अत्यन्त पुरुषार्थ से प्राप्त किया हो तो भी गमनपरिणाम वाला है तथा उसको प्राप्त करने में अर्जित पापों से कुगति के विपाक देने वाला है। जब द्वेषभाव आता है तब जिसके ऊपर द्वेष होता है, वह जीव और पुद्गल मेरे से भिन्न है तथा यह द्वेष अनवस्थित परिणति वाला है और परलोक में आत्मा को पतन की खाई में गिरा देने वाला है। मोह के विषय में भी सामान्य से उत्पाद-व्यय-धौव्य युक्त वस्तु के स्वरूप को अनुभाव पूर्वक युक्तियों के साथ सम्यग् प्रकार से विचारना।386 राग-द्वेष तथा मोह-ये दोष आत्मा को अनादिकाल से सताते हैं। उसको दूर करने के लिए। भावनाश्रुतपाठ, तीर्थश्रवण, आत्म-संप्रेक्षण-इन तीन उपायों को अपनाने से अवश्य रागादि दोष दूर होते हैं और परमात्मा की आज्ञानुसार तत्त्वचिंतन करने पर अवश्य तत्त्वबोध प्राप्त होता है और तत्त्वबोध से योगसिद्धि प्राप्त होती है। यह आत्म-संप्रेक्षण योग सिद्धि का कारण है। अतः विधिपूर्वक होना चाहिए तब ही अबन्ध्य फल की प्राप्ति होती है।387 योग की विधि आत्म-संप्रेक्षण योग सिद्धि का कारण है। अतः इसे हम योग की विधि भी मान सकते हैं। उपाध. याय यशोविजय का कथन है कि सभी कार्य में विधि की अपेक्षा सर्वप्रथम होती है। सामान्य रूप से . एक घट या पट बनाना हो तो भी विधिपूर्वक बनायेंगे तो घट या पट बनेगा, उसी प्रकार यह तो महान् कार्य है। अतः तत्त्वचिंतन में विधि अवश्य अपनानी चाहिए। तत्त्वचिंतन से पहले सर्वप्रथम वीतराग परमात्मा बलवान है, अतः उनकी आज्ञा पालन और उनके प्रति हार्दिक बहुमान निर्बल को भी बलवान बनाता है। एकान्त स्थान में चिन्तन करना, जिससे चिन्तन की धारा में व्याघात न हो। सम्यग् उपयोगपूर्वक चिन्तन करना। गुरुदेवों को प्रणाम करना, प्रणाम करने से अनुग्रह होता है। अनुग्रह से अधिकृत तत्त्वचिंतन की सिद्धि होती है। पद्मासन आदि आसन लगाना। आसन विशेष से काया का निरोध होता है और योग सेवन करने वाले अन्य योगी-महात्माओं के प्रति बहुमान भाव होता है। डांस, मच्छर आदि की अवगणना वैसा करने में वीर्योल्लास की वृद्धि तथा इष्टफल की प्राप्ति होती है। एकाग्रचित होकर इन रागादि निमित्तों का तत्त्वचिंतन करना। इन सात विधियों से युक्त किया गया तत्त्वचिंतन ही इष्टसिद्धि अर्थात् यथार्थ योगदशा की सिद्धि का प्रधानतर अंग है। यह तत्त्वचिंतन ही असत् प्रवृत्तियों की निवृत्ति करने वाला, चित्त की स्थिरता करने वाला तथा उभय लोक का साधक है, ऐसा समयज्ञ पुरुष कहते हैं। 382 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org