SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - प्रथम की बाह्य है, दूसरी आभ्यंतर है। वादियों को जीतने में, विशालसभा में, श्रोतावर्ग को प्रतिबोध करने में और बाल जीवों को धर्म में आकर्षित करने में शरीर की सुन्दरता, वाणी की मधुरता और मन के शुभ संकल्प अवश्य सहायक हैं। कारण है, निमित्त है, उसी से छेदसूत्रादि आगमों में जब जैनाचार्य वादियों के समक्ष वाद-विवाद करने राज्यसभा में उपस्थित होते हैं तब उनको सुन्दर, स्वच्छ और शुद्ध ऐसे श्वेत वस्त्र धारण करने का कहा परन्तु यह बाह्य शुद्धि आत्यंतिक जरूरी नहीं है, जबकि मोहनीय कर्म के क्षयोपशमजन्य है। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि अन्य दर्शन मान्य योगशुद्धि का भी निषेध नहीं करते हैं। परन्तु साध्वेव कहकर सम्मति देते हैं लेकिन उसकी प्रधानता बताने में वे दूर रहते हैं।382 योग में साधक एवं बाधक तत्त्व योग के बाधक तत्त्व प्रत्येक श्रेष्ठ, उत्तम, विशिष्ट कार्य में कुछ-न-कुछ विघ्न प्रायः आते ही रहते हैं। अतः नीतिकारों ने कहा है-“श्रेयासि बहु विघ्नानि" श्रेष्ठ कार्य बहुत विघ्न वाले होते हैं। आध्यात्मिक विकास श्रेणी में योग भी एक श्रेष्ठ कार्य है। अतः योगसिद्धि में भी अनेक प्रतिबंधक भावों का प्रादुर्भाव होता है, जिसे शास्त्रकार भगवंत बाधक तत्त्व कहते हैं। बाधक अर्थात् अंतराय विघ्न। विघ्न में कंटकविघ्न, ज्वरविघ्न और मोहविघ्न-ये तीनों आत्मा को लक्ष्य स्थान पर पहुंचाने में बाधक बनते हैं। जव योगी इन पर विजय प्राप्त करता है तब निश्चित श्रेणी को प्राप्त करता है। इनका वर्णन आशय शुद्धि में, योग में पांच आशयों में विघ्नजय नाम के आशय में विस्तार से किया जायेगा। साथ में उपाध्याय यशोविजय ने इन बाधक तत्त्वों के साथ राग, द्वेष और मोह-आत्मा के इन तीन दोषों का भी उल्लेख किया है। मोहविघ्न जो आंतरिक विघ्न है, इसके अन्दर राग-द्वेष और मोह का भी समावेश हो सकता है। जिस प्रकार मोहविघ्न आत्मा को भ्रमित बना देता है, उसी प्रकार राग-द्वेष और मोह भी आत्मा के वैभाविक परिणाम हैं। ये आत्मा को दूषित बनाते हैं। ये दोष आत्मा के ज्ञानादि गुणों को आच्छादित करते हैं। आत्मा को विभावदशा में ले जाते हैं। राग एक प्रकार की आसक्ति है। द्वेष अप्रीति का सूचक है तथा मोह अज्ञानमूलक है। इन तीनों के कारण आत्मा कर्मों के बंधन करती है और अनेक पीड़ाओं को प्राप्त करती हैं। ये भी आत्मा को गन्तव्य स्थान में पहुंचने में बाधक बनते हैं, क्योंकि रागादि से कर्म की परम्परा सतत चालू रहती है, जिससे भवभ्रमण भी अनवरत चलते रहते हैं। अतः आचार्य हरिभद्रसूरि ने इन बाधक तत्त्वों को दूर करने के उनके प्रतिपक्षी साधक तत्त्वों की भी स्थापना की है। योग के साधक तत्त्व साधक तत्त्वों का स्पष्ट उल्लेख यद्यपि प्राप्त नहीं होता है, फिर भी कंटकविघ्न आदि पर विजय प्राप्त करने के शुभ परिणाम एवं रागादि दोषों की प्रतिपक्ष भावनाओं का तत्त्व-चिन्तन करना साधक तत्त्वों के अन्तर्गत गिन सकते हैं। प्रतिपक्ष भावना में साधक आत्मा संप्रेषण करता है और चिन्तन करता है। इन रागादि तीन दोषों में से मुझे अतिशय हत-प्रहत कौन करते हैं? उसकी गवेषणा करता है। ये तीनों आत्मा के दोष हैं। इनका अपनयन करने के लिए स्वरूपचिंतन, परिणामचिंतन और विपाकदोषचिंतन-इस प्रकार क्रमशः एक-एक दोष का तीन-तीन प्रकार से तत्त्वचिंतन करना चाहिए।385 381 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy