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________________ कर्म की स्थिति कर्मों की समय मर्यादा का विचार जिसमें किया जाए, उसको शास्त्र में स्थितिबंध कहते हैं। जैसे स्थितिबंध शब्द का प्रयोग गमन रहितता वस्तु के अस्तित्व विद्यमानता रहने के काल-आयु के अर्थ में किया जाता है, लेकिन यहाँ स्थिति का अर्थ है-आत्मा के साथ संश्लिष्ट कार्मण पुद्गल स्कंध की कर्मरूप में बने रहने की काल-मर्यादा। बन्ध हो जाने के बाद जो कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ अवस्थित रहता है, वह उसका स्थितिकाल कहलाता है और बन्धन वाले कर्मों में इस स्थितिकाल की मर्यादा के पड़ने को स्थितिबंध कहते हैं। कर्म का जब बन्ध होता है, तब से लगाकर फल देकर दूर होने तक के समय को स्थितिकाल कहते हैं। एक समय में एक साथ जितनी स्थिति का बंध होता है, उसे स्थितिस्थानक कहते हैं। जैन शास्त्रों में कर्मों की स्थिति का वर्णन अनेक दृष्टि से किया गया है, जैसे-उत्कृष्ट, जघन्य और उपरितन स्थिति, सान्तर-निरन्तर स्थिति आदि-अनादि स्थिति है। स्थिति के उक्त भेदों में उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति-ये दो प्रमुख हैं। उपाध्याय यशोविजय कम्मपयडी की टीका289 में इन दो स्थितियों का वर्णन करते हुए कहते हैं-स्थिति अर्थात् सांसारिक शुभ अथवा अशुभ फल देने वाला काल बंध होने के समय से लेकर निर्जीव होने के अन्तिम क्षण के काल को कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं तथा प्रत्येक प्रकृति की जघन्य स्थिति का बन्ध उनके बन्ध-विच्छेदक के समय में होता है अर्थात् जब उन प्रकृतियों के बन्ध का अनन्तकाल आता है, तभी जघन्य न्यूनतम स्थिति बंधती है। उसे जघन्य स्थिति कहते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने उकृष्ट एवं जघन्य स्थिति का वर्णन निम्न रूप से किया हैउत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है एमेव विसीहिओ विग्धावरणेसु कोडिकोडिओ। उरही तीसभसाते तद्धं थीमणुवदुगसाए।।7।। तिविह मोहे सत्तरि चतालीसा य वीसई य कमा। दस पुरिसे हासरई देवइगे खगदु चेट्टाए।।1।। थिर सुभ पंचगउच्चे, चेय सट्ठाण संधवण मूले। तब्बीतियाइ बिवुट्ठि अट्ठारस सुहम विगलतिगे।।।2।। तिथ्यगदाहारदुगे अतो वीसं सनिच्चनामाणं। तेतीसुदही सुदनारयाउ सेसाउ पल्लतिगं।।73।। आउचउक्कुक्कोसो पत्तासंखेजभागममणेसु / सेंसाण पुव्व कोडी साउतिभागो अबाहा सि।।74 / / 290 आद्यतीन-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय-इन चार कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति 30 कोडाकोडी सागरोपम, मोहनीय की 70 कोडाकोडी सागरोपम है। नाम एवं गोत्र कर्म की 20 कोडाकोडी सागरोपम एवं आयुष्य की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागरोपम है। 364 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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