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________________ गुणस्थान में जब कर्म विषयक चिन्तन करते हैं तब एक अपूर्व धारा प्रवाहित होती है, वह है बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता की। जीवों को सामान्य से मूल आठ कर्म और उत्तर प्रकृतियों में से कौन-कौन से गुणस्थान तक कितनी-कितनी प्रकृतियाँ बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता में रह सकती है, क्योंकि प्रत्येक प्रकृतियों का अपने निश्चित गुणस्थानक तक ही बंध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता होती है। मर्यादा में रहकर ही अपना प्रभाव दिखाती है। तत्पश्चात् उसका प्रभाव-विच्छेद हो जाता है। सामान्य अपेक्षा से बंध प्रकृतियाँ-120, उदय व उदीरणा-122 एवं सत्ता प्रकृतियाँ-148 हैं। बंध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता में उत्तर-प्रकृतियाँ कौन-से गुणस्थानक में कितनी रहती है उसका विवरण भिन्न है बंध-बंध में ओघ से मूल प्रकृतियाँ 8, उत्तरप्रकृतियाँ 120 हैं। प्रथम गुणस्थानक में उत्तरप्रकृतियाँ-117, द्वितीय गुणस्थानक-101, तृतीय गुणस्थानक-74, चतुर्थ गुणस्थानक-77, पंचम गुणस्थानक-67, षष्ठम गुणस्थानक-63, सप्तम गुणस्थानक-49, 48, अष्ठम गुणस्थानक-58, 56, 26, नवम गुणस्थानक-22, 21, 20, 19, 18, दशम गुणस्थानक-17, एकादश गुणस्थानक-1, द्वादश-त्रयोदश गुणस्थानक-1, चतुर्दश गुणस्थान-0 उत्तरप्रकृतियों का बंध होता है। उदय-उदय में ओघ से मूल प्रकृतियाँ 8, उत्तरप्रकृतियाँ 122 हैं। प्रथम गुणस्थानक में उत्तरप्रकृतियाँ-117, द्वितीय गुणस्थानक-111, तृतीय गुणस्थानक-100, चतुर्थ गुणस्थानक-104, पंचम गुणस्थानक-87, षष्ठम गुणस्थानक-81, सप्तम गुणस्थानक-78, अष्ठम गुणस्थानक-72, नवम गुणस्थानक-66, दशम गुणस्थानक-60, एकादश गुणस्थानक-59, द्वादश गुणस्थानक-57, 55, त्रयोदश गुणस्थानक-42 एवं चतुर्दश गुणस्थानक-12 प्रकृतियों का उदय होता है। उदीरणा-उदीरणा में ओघ से मूल प्रकृतियाँ 8, उत्तरप्रकृतियाँ 122 हैं। प्रथम गुणस्थानक में उत्तरप्रकृतियाँ-122, द्वितीय गुणस्थानक-111, तृतीय गुणस्थानक-100, चतुर्थ गुणस्थानक-104, पंचम गुणस्थानक-87, षष्ठम गुणस्थानक-81, सप्तम गुणस्थानक-73, अष्ठम गुणस्थानक-69, नवम गुणस्थानक-63, दशम गुणस्थानक-57, एकादश गुणस्थानक-56, द्वादश गुणस्थानक-54, 52, त्रयोदश गुणस्थानक-39 एवं चतुर्दश गुणस्थानक-1 भी उत्तरप्रकृति एवं मूल प्रकृति की उदीरणा नहीं होती है। सत्ता-प्रथम गुणस्थानक-148, द्वितीय गुणस्थानक-147, तृतीय गुणस्थानक-147, चतुर्थ गुणस्थानक-148, पंचम गुणस्थानक-148, षष्ठम गुणस्थानक-148, सप्तम गुणस्थानक-148, अष्ठम गुणस्थानक-148, नवम गुणस्थानक-148/138, दशम गुणस्थानक-148/102, एकादश गुणस्थानक-148, द्वादश गुणस्थानक-101, त्रयोदश गुणस्थान-85 एवं चतुर्दश गुणस्थान-12 या 13 उत्तरप्रकृति की सत्ता होती है। इस प्रकार बंध, उदय, उदीरणा और सत्ता में उन गुणगाथाओं के योग्य प्रकृतियों का अपने-अपने गुणस्थानक तक बंधादि रहता है और उत्तर गुणस्थानों में बंधादि का विच्छेद होता जाता है।287 उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका88 में मूल चौदह पिण्ड प्रकृति और उत्तर 75 प्रकृतियों का वर्णन गुणस्थानक में किया है एवं कर्मप्रकृति में भी ध्रुवबंध आदि 31 द्वारों का स्वरूप दिखाया गया है, वो यथार्थ है। 363 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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