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________________ 1. प्रागुभाव न्यायदर्शन में अनादि है, फिर भी सान्त है। 2. बीज और अंकुर की उत्पत्ति प्रवाह से अनादि है, फिर भी बीज को न बोते अथवा अंकुर के नाश हो जाने पर अंत होता है। 3. मुर्गी और अण्डे की उत्पत्ति अनादि होने पर भी दोनों में से एक का विनाश होने पर अंत भी होता है। उसी प्रकार जीव कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर रत्नत्रयी की उपासना आदि से अंत आ सकता है।58 इसी बात का उल्लेख विशेषावश्यक भाष्य259 में भी ग्यारहवें गणधर की शंका के समाधान पर किया गया है। कर्म के विपाक सम्पूर्ण प्रकृतियों का जो फल होता है, उसको विपाक अथवा विपाकोदय कहते हैं। इसी का नाम अनुभाग अथवा अनुभाग बन्ध है। जैसा कि उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-विपाकोऽनुभावः / 260 वि शब्द का अर्थ है विविध, अनेक प्रकार का और पाक शब्द का अर्थ परिणाम या फल। बंधे हुए कर्मों का फल अनेक प्रकार का हुआ करता है। अतएव उसको विपाक कहते हैं तथा सभी जीव पूर्वकृत कर्मों के फल-विपाक को प्राप्त करते हैं। ज्ञानावरण आदि आठों कर्म स्व-स्वभाव के अनुसार उदयकाल में अपना विपाक दिखाते हैं। सामान्य रूप में देखा जाए तो विपाक हेय है। लेकिन विशेष की अपेक्षा से यहाँ विपाक कथंचित् शुभ रूप भी है और कथंचित् अशुभ रूप भी। इसलिए उनकी अनुभाग शक्ति को विपाक की दृष्टि से पुण्य और पाप दो भागों में विभक्त की जा सकती है। दान, शील, मंदकषाय, सेवा, भक्ति, परोपकार आदि शुभ परिणामों से जिन कर्मों में शुभ अनुभाव विपाक प्राप्त होता है उन्हें पुण्य कर्म तथा मदिरापान, मांसभक्षण, कूड़-कपट आदि अशुभ परिणामों से जिनका अशुभ अनुभाव प्राप्त होता है, उन्हें पाप कर्म कहते हैं। पुण्यकर्म का सुख और पापकर्मों का दुःखरूप विपाक होता है। सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णा फला भवन्ति। दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णा फला भवन्तिः।।। दर्शनान्तरों में भी कर्मों के विपाक को स्वीकारा है। ते हादपरितापकलाः पुण्यापुण्य हेतुत्वाद / 262 जाति, आयु तथा भोग-पुण्य और अपुण्य के सुख-फल तथा दुःख-फल हैं। जैन दर्शन के अनुसार कृत कर्मों का फल-भोग किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है। कडाण कम्माण णत्थि मोकक्खो। जो कर्म किये हैं, उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता किन्तु कर्म की अवस्थाओं में समयशक्ति, रस आदि के अनुसार कुछ कर्म नियत विपाकी होते हैं, कुछ अनियत विपाकी होते हैं। जिनका विपाक नियत है, उनमें किसी भी प्रकार से हेराफेरी नहीं की जा सकती। वे कर्म जैन परिभाषा में निकाचित कर्म कहलाते हैं। इसके विपरीत जिन कर्मों के बंधन के समय कषाय की अल्पता होती है, वे अनियत विपाकी कर्म हैं अर्थात् उनमें फल एवं समय में परिवर्तन किया जा सकता है। जैन कर्मसिद्धान्त की संक्रमण, उद्बर्तना, अपवर्तना, उदीरणा एवं उपशमन की अवस्थाएँ कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती हैं। 358 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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