SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हरिभद्रसूरि योगबिन्दु आदि ग्रंथों में जीव और कर्म के अनादि संबंध बताते हुए कहते हैं कि जीव कर्म का संयोग भी जीव की योग्यता बिना संभव नहीं है। उसी से जीव और कर्म सम्बन्धी जो योग्यता है, वही उसका अनादि स्वभाव है। उसी से कर्म का जीव के साथ जो संयोग सम्बन्ध है, वह भी अनादिकाल का ही जानना चाहिए।256 यह अनादि सम्बन्ध प्रवाह की अपेक्षा से है-जब रागादि परिणामों का आगमन होता है तब कर्म का बंध होता है। वह कर्म की सादि कहलाती है। लेकिन जब कर्म का बंध हुआ तब भी उसके पास पूर्वबद्ध कर्म तो अवस्थित है, वह कर्म जब बंधा होगा तब भी उस कर्म के पहले पूर्वबद्ध कर्म तो होगा ही। इस प्रकार बीजांकुर न्याय से एक कर्म दूसरे कर्म का कारण बनता है। इस प्रकार आत्मा और कर्म का संबंध अनादि मानना ही न्यायपूर्वक है। जैसे अनुभव किया है वर्तमान काल का जिसने, ऐसा सम्पूर्ण अतीत काल प्रवाह से अनादि है, वैसे ही कर्म व्यक्ति रूप में कार्यरूप होने पर भी प्रवाह से अनादि है। ___ अर्थात् जितना अतीत काल गया है, वह सभी अतीतकाल एक बार अवश्य वर्तमान अवस्था को प्राप्त कर चुका है। उदाहरण के रूप में जैसे कि अभी 2011 चल रहा है, उसके पूर्व में 2008, 2009, 2010 आदि वर्ष सभी भूतकाल कहे जाते हैं। परन्तु उन वर्षों का जब प्रारम्भ हुआ था तब तो वे भी वर्तमान ही थे। उसके पश्चात् भूतकाल बने हैं अतः वर्तमान ही है। उसकी सादि है, फिर भी सम्पूर्ण भूतकाल अनादि है, कारण कि समय के बिना यह लोक कभी भी संभावित नहीं है। अर्थात् बीता हुआ अतीत काल विवक्षित वर्ष में वर्तमान काल में सादि होने पर भी प्रवाह से अनादि है, उसी प्रकार कर्म भी विवक्षित कर्म के आश्रयी सादि होने पर भी प्रवाह से अनादि है। इसी को उपाध्याय यशोविजय दार्शनिकता को सिद्ध करते हैं। जैसे जीव और कर्म पुद्गलों का संयोग तथा बंध का सम्बन्ध पूर्वोक्त योग्यता से प्रवाह से अनादिकालीन है, वैसे ही सांत अर्थात् अंत वाला भी .. है, जो ऐसा स्वीकार नहीं करे तो प्रथम जीव कमलपत्र के समान शुद्ध होना चाहिए और पश्चात् उसको कर्म का सम्बन्ध हुआ, वैसा मानना पड़ेगा और वैसा मानने पर पूर्व जो कहा गया, उसके साथ विरोध आयेगा। उसी से जीव के साथ अनादिकाल से प्रवाह पूर्वक आने वाली योग्यता के द्वारा कर्म संयोग कर्मबंध कर्म भोक्तृत्व आदि प्रवाह से अनादि काल का ही सिद्ध होता है। ... कंचन और मिट्टी के समान जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी उपायों के द्वारा दोनों का वियोग भी अवश्य हो सकता है। उसी को उपाध्याय यशोविजय अनेक युक्तियों के द्वारा बताते हैं। जिज्ञासु अथवा अज्ञानी के मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि जिसका संबंध अनादि से है, उसक अंत कैसे हो सकता है? उसी प्रकार जीव और कर्म का सम्बन्ध भी अनादि काल से होने के कारण अनन्त काल तक रहना चाहिए। उससे जीव की मुक्ति की बात घटित नहीं होती है। लेकिन यह बात युक्तिसंगत नहीं है। जिसका सम्बन्ध अनादिकाल से हो, उसका अनन्तकाल तक सम्बन्ध रहे, यह कोई नियम नहीं है, क्योंकि यह नियम तो व्यभिचार युक्त है। जैसे कंचन और मिट्टी का सम्बन्ध अनादि है, फिर भी खार, मिट्टी आदि के पुटपाक से उस सम्बन्ध का अंत आ सकता है, उसी प्रकार जीव कर्म का सम्बन्ध अनादि होने पर भी सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयी की उपासना से अंत लाया जा सकता है। ___ कंचन और उपल की तरह दूसरे भी ऐसे दृष्टान्त मिलते हैं, जो अनादि होने पर भी अनन्त नहीं __ हैं, परन्तु उनका अन्त है 357 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy