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________________ फांसी आदि निमित्तों से सौ-पचास आदि वर्षों के लिए आयु बांधी गई थी। उसे अन्तमुहूर्त में भोग लेना आयु का अपवर्तन है। इस आयु को अकाल मरण या कदलीघात मरण कहते हैं। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जैनदर्शन के नियमानुसार आयु कर्म घट तो सकता है किन्तु पूर्व में बांधी हुई आयु में एक क्षण की भी वृद्धि नहीं हो सकती। 2. अनपवर्तनीय-बड़े-बड़े कारण आने पर भी निर्धारित आयु की काल-मर्यादा एक क्षण को भी कम न हो, उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। उपपात जन्म वाले अर्थात् देव, तद्भव मोक्षगामी तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव और असंख्य वर्ष वले देवगुरु, उत्तरगुरु में उत्पन्न मनुष्य और तिर्यंच अनपवर्तनीय आयु वाले होते हैं। इनके अतिरिक्त शेष मनुष्य, तिर्यंच अपवर्त्य वाले हैं। आयुष्य कर्म चार प्रकार का जानना चाहिए आउं च एत्थ कम्मं चउव्विहं नवरि होंति नायव्वं / नारयतिरियनरामरगति भेद विभागतो जाण।।135 उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में भी आयुष्य कर्म के चार भेद बताये हैं सुरायुनरायुस्तिर्यगायुर्निरयायुश्चेति चतस्त्र आयुषः प्रकृतयः। 36 गति या भव की अपेक्षा से आयु के चार प्रकार हैं-1. देवायु, 2. मनुष्यायु, 3. तिर्यंचायु, 4. नरकायु। ' 1. सुर-देवआयु-सुष्ठु शन्ति (ददाति) इति सुरा सुरन्ति-विशिष्टाएश्वर्य अनुभवन्ति इति सुराः। . . नमस्कार करने वालों को इच्छित देने वाले सुर की आयु में जीव की अवस्थिति सुरायु कहलाती है। 2. नर-मनुष्य आयुः नृणन्ति-निश्रन्वन्ति वस्तुज्ञत्वमिति नराः-जो वस्तु तत्त्व का निश्चय करता है, उसे नर कहते हैं, उसकी आयु या उनमें जीव की अवस्थिति नरायु, मनुष्यायु कहलाती है। 3. तिर्यश्चायु-तिरोऽच्छन्ति गच्छन्ति इति तिर्यचः। उन तिर्यंचों की आयु में जीव की अवस्थिति तिर्यश्चायु कहलाती है। 4. नरकायु-नरान् उपलक्षणात् तिरश्चोऽपि प्रभुतपापकारणः कायन्ति / आहवायन्ति इति नरकाः नरकावासाः। नरकवास में उत्पन्न जीव नरक कहलाता है। उनकी आयु नरकायु कहलाती है। श्रावकप्रज्ञप्ति में भी आयुष्य के चार भेद बताये गये हैं। स्थानांग!39 में भी नाम, स्थापना, द्रव्य, ओघ, भव, तद्भव, भोग, संयम, यशकीर्ति एवं जीवित आदि दस प्रकार की आयु का वर्णन प्राप्त होता है। आयुष्य कर्म बन्धन के कारण सभी प्रकार के आयुष्य कर्म के बंध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है। फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन आगमों में उपलब्ध है। कर्मग्रंथ, तत्त्वार्थसूत्र एवं स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य के बंध के चार कारण माने गये हैं" 1. नरकायु बंधने का कारण-1. महारम्भ, 2. महापरिग्रह, 3. पंचेन्द्रिय वध और 4. मांसाहार। 2. तिर्यञ्च आयु बंधने का कारण-1. माया करना, 2. गूढ़ माया करना, 3. असत्यवचन बोलना, 4. कूट तोल-माप करना। 3. मनुष्यायु बंधने का कारण-1. सरलता, 2. विनयशीलता, 3. करुणा, 4. ईर्ष्या न करना। 4. देवायु बंधने का कारण-1. सरागसंयम, 2. संयमासंयम, 3. बाल तपस्या, 4. अकाम निर्जरा। 344 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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