SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोहनीय कर्मबंध के कारण दर्शनमोहनीय सत्यमार्ग की अवहेलना करने से और असत्य मार्ग का पोषण करने से तथा केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, उपाध्याय, आचार्य, साधु, धर्म और देवों का अवर्णवाद बोलने से, सत्य पोषक आदर्शों का तिरस्कार करने से दर्शन-मोहनीय कर्म का तीव्र बन्ध होता है। चरित्र मोहनीय-'कषायोदयातीव्रात्म-परिणामश्चारित्र मोहस्य' अर्थात् स्वयं दोषादि कषायों को करना और दूसरों में कषाय भाव उत्पन्न करना, कषाय के वश होकर अनेक अशोभनीय प्रवृत्तियाँ आदि करना-ये सब चारित्र-मोहनीय कर्म के बंध के कारण हैं। स्वयं पाप करने से, कराने से, तपस्वियों की निंदा करने से, धार्मिक कार्यों में विघ्न उपस्थित करने से, मद्य, मांस आदि का सेवन करने एवं कराने से, निर्दोष व्यक्तियों में दूषण लगाने से चारित्र मोहनीय कर्म का बंध होता है। 5. आयुष्य कर्म जिस कर्म के अस्तित्व में लोक-व्यवहार में जीवित और क्षय होने पर ‘मर गया' कहलाता है यद भावाभावयोः जीवितमरणं तदायुः।। अर्थात् इस कर्म के सद्भाव से प्राणी जीता है और क्षय हो जाने पर मर जाता है अथवा जिस कर्म के उदय से जीव नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में से किसी एक पर्याय विशेष में समय विशेष तक रोक दिया जाता है, उसे आयु कर्म कहते हैं। जीव की किसी विवक्षित शरीर में टिके रहने की अवधि का नाम आयु है। इस आयु का निमित्तभूत कर्म आयु कर्म कहलाता है। 28 जीवों के जीवन की अवधि का नियामक आयु कर्म है। इस कर्म के 'अस्तित्व से प्राणी जीवित रहता है और क्षय होने पर मृत्यु के मुख में। मृत्यु का कोई देवता या * उस जैसी कोई अन्य शक्ति नहीं है अपितु आयु कर्म के सद्भाव और क्षय पर ही जन्म और मृत्यु अवलम्बित है। अभिधान राजेन्द्रकोश में आउ शब्द अप्, आतु, आकु (गु) और आयुष अर्थ में प्रयुक्त होता है। आयुष की व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने कहा है-जो प्रतिसमय भुगतने में आता है, जिसके कारण जीव नरकादि गति में जाता है, जो एक भव से दूसरे भव में संक्रमण करते समय जीव अवश्य उदय में आता है, जन्मान्तर में अवश्य उदय में आने वाला, जिसके कारण से तद्भव प्रायोग्य शेष सभी कर्म विशेषारूप से उदय में आते हैं-भवोपग्राही कर्मविशेष आयु भवस्थिति के कारणभूत कर्म पुद्गल जीवित, जीव का शरीर संबंध का काल, को आयुःकर्म कहते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में आयुष्य कर्म की व्याख्या देते हुए कहा है कि एत्यागच्छति प्रतिबन्धकतां कुगतिनिर्यियासोर्जन्तोदिन्यायुः / / कुगति में से निकलने की इच्छायुक्त प्राणी को प्रतिबंधकता को थामे या रोके, उसे आयुःकर्म कहते हैं। आयुष्य कर्म की उत्तर प्रकृति जीवों के अस्तित्व का नियामक आयुकर्म है। आयु कर्म के दो प्रकार-1. अपवर्तनीय, 2. अनपवर्तनीय। ___ 1. अपवर्तनीय-निमित्त या कारण प्राप्त होने पर जिस आयु को काल-मर्यादा में कमी हो सके, उसे अपवर्तनीय आयु कहते हैं। अपवर्तनीय आयु विषभक्षण, वेदना, रक्तक्षय, शास्त्रघात, पर्वत से पतन, 343 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy