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________________ अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जिसके कारण सांसारिक सुख-दुःख की संवेदना होती है, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं।103 वेदनीय कर्म के उदय से आत्मा को सुख या दुःख का वेदन होता है। यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बनाकर अनन्त दुःख के समुद्र में धकेल देता है। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में वेदनीय कर्म को बताते हुए कहा है वेद्यते आहमादिरूपेण यत्तध्वेदनीयं। 05 आह्लाद आनंदरूप से जो वेदाता है, उसे वेदनीय कहते हैं। जिस कर्म के उदय से व्यक्ति की सुख-दुःख की प्राप्ति हो, उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। यद्यपि ज्ञानावरण आदि सभी कर्म अपने विपाक का वेदन कराते हैं, लेकिन पंकज जैसे कमल के अर्थ में रूढ है। वैसे ही वेदनीय शब्द को साता-असाता रूप फल विवाद के वेदान्त कराने में रूढ समझना चाहिए। वेदनीयकर्म की उत्तर प्रकृति वेदनीय कर्म दो प्रकार का है-1. सातावेदनीय, 2. असातावेदनीय। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका में वेदनीय कर्म के भेद बताते हुए कहा है वेदनीयस्य द्वै प्रकृति सातमसातं च। तत्र यत्रउदयाद्वारोग्यविषयोप-भोगादि जनितमाहलादलक्षणं .. सातं वैद्यते तत्सातवेदनीयं। तदिवपरीतमसातवेदनीयं / जिसके उदय से आरोग्य, विषय, उपभोग आदि उत्पन्न होते ही आनन्द होता है, उसे सातावेदनीय कहते हैं, उससे विपरीत असातावेदनीय है। 1. सातावेदनीय-जिसका वेदन सुख स्वरूप से होता है या जो सुख का वेदन कराता है, उसे सातावेदनीय कहते हैं। रति मोहनीय कर्म के उदय से जो जीव को सुखकारक इन्द्रिय विषयों का अनुभव कराता है, उस कर्म को सातावेदनीय कहते हैं।10 इसके उदय से जीव अनुकूल सांसारिक विषय, भोजन, वस्त्र आदि तथा शारीरिक एवं मानसिक सुख का अनुभव करता है।" 2. असातावेदनीय-इसके उदय से प्रतिकूल विषयों का, प्रतिकूल शारीरिक एवं मानसिक स्थिति का संयोग होने से दुःख वेदना असाता उत्पन्न होती है। जिस कर्म के उदय से आत्मा को अनुकूल विषयों की अप्राप्ति और प्रतिकूल इन्द्रिय विषयों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव होता है, उसे असाता वेदनीय कहते हैं। समस्त संसारी जीव वेदनीय कर्म के उदय से दुःख-सुख का अनुभव करते हैं। वे न तो एकान्त रूप से सुख का ही और न दुःख का ही वेदन करते हैं। उनका जीवन सुख-दुःख से मिश्रित होता है। फिर भी देवगति, मनुष्यगति प्रायः शब्द से यह संकेत किया गया है कि देव और मनुष्य में साता के सिवाय असाता वेदनीय कर्म का भी और तिर्यंच और नरक में असाता के सिवाय साता का भी उदय संभव है। चाहे वह अल्पांश हो, लेकिन संभावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। 340 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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