________________ नव भेदों का वर्णन संक्षिप्त में इस प्रकार हैनिद्रा-जिस निद्रा में प्राणी सुख पूर्वक आवाज लगाते ही जाग उठे। निद्रा निद्रा-जिस निद्रा में प्राणी बड़ी मुश्किल से जाग पाता है। प्रचला-जिस निद्रा में प्राणी बैठे-बैठे ही सो जाया करता है। प्रचला प्रचला-जिस निद्रा में प्राणी चलते-चलते निद्रा करता है। थीणद्रि-जिसमें व्यक्ति दिन में या रात्रि में उठना-बैठना, चलना आदि अनेक क्रियाएँ निद्रावस्था में ही सम्पन्न कर देता है। चक्षुदर्शनावरण-नयन शब्द चक्षुवाचक है। चक्षु इन्द्रियजन्य सामान उपयोग का जो आवरण किया करता है, उसे चक्षुदर्शनावरण कहते हैं। - अचक्षुदर्शनावरण-चक्षु के अलावा शेष इन्द्रियों से होने वाले सामान्य बोध को अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं। ____ अवधि दर्शनावरण/केवल दर्शनावरण-अवधि और केवल रूप सामान्य उपयोग के आवरण कर्म को क्रम से अवधि दर्शनावरण और केवल दर्शनावरण जानना चाहिए।" दर्शनावरण में जो पांचवां भेद थिणद्री है, उसकी विशेषता बताते हुए पुण्यम् कर्मग्रन्थकार कहते हैं कि यदि व्रज ऋषभ नाराच संहनन वाले जीव को सत्यानद्रि निद्रा का उदय हो तो उसमें वासुदेव के आधे बल के बराबर बल हो जाता है।100 इस निद्रा वाला जीव नरक में जाता है। दर्शनावरण कर्म बंध के कारण। ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छः प्रकार के अशुभ आवरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है दर्शनप्रत्यनीकता-दर्शन या दर्शनी से प्रतिकूलता रखना। दर्शन निन्हव-दर्शन या दर्शनदाता का अपलाप करना अर्थात् दर्शनी को कहना कि वह दर्शनी नहीं है। दर्शनान्तराय-सम्यक्त्व की उपलब्धि में बाधक बनना, विघ्न डालना। दर्शन-प्रद्वेष-सम्यक्त्व या सम्यक्त्वी पर द्वेष करना। दर्शन-आसातना-दर्शन या दर्शनी की अवहेलना करना। दर्शन विसंवादन-दर्शन या दर्शनी के वचनों में विसंवाद अर्थात् विरोध दिखाना। 3. वेदनीय कर्म यह कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को आच्छादित करता है। इस वेदनीय कर्म द्वारा शाता-अशाता दोनों का वेदन होता है। उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। तृतीय वेदनीयं साता सातरूपेण वेद्यते इति वेदनीयम् / इस कर्म के उदय से संसारी जीवों को ऐसी वस्तुओं से संबंध हो जाता है, जिसके निमित्त से वो सुख-दुःख दोनों का अनुभव करते हैं। संसारी जीवों को एकान्तरूप से सुख नहीं मिलता है किन्तु दुःख का अंश भी मिश्रित रहता है। 339 24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org