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________________ किन्तु कर्मग्रन्थकारों ने कर्म का अर्थ इस प्रकार किया है कीरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो मंत! भण्णइ कम्मं वि। ___कीरइ जिएण हेऊहिं जेणं तु भण्णए कम्मं / / " जीव मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-इन हेतुओं द्वारा प्रेरित होकर मन, वचन और काया की जो प्रवृत्ति करता है, वह कर्म कहलाता है। अर्थात् जीव के द्वारा हेतुपूर्वक जो क्रिया की जाए, वह कर्म है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने कर्म के 'लोकतत्त्व निर्णय' में अनेक पर्यायवाची नाम बताये हैं। विधिविधान नियतिः स्वभावः कालो ग्रहा ईश्वर कर्मदैवम्। आग्यानि कर्माणियमः कृतान्त पर्यायः नामानि पुराकृतस्य।।” विधि, विधान, नियति, स्वभाव, काल, ग्रह, ईश्वर, कर्म, दैव, भाग्य, यम, कृतान्त-ये पूर्ववत् कर्म के पर्यायवाची नाम हैं। इस प्रकार कर्म शब्द को जैन दर्शनकारों ने तो आदर भाव से सुग्राह्य बनाया ही है लेकिन साथ-साथ अन्य दर्शनकार भी इससे अछूते नहीं रहे हैं। नामभेद हो सकता है लेकिन तत्त्वभेद नहीं है। इसी बात को स्पष्ट करने हेतु उदार समन्वयवादी के पुरोधा उपाध्याय यशोविजय ने अपनी टीका में अन्य दर्शनों द्वारा मान्य कर्म के नामभेदों का उल्लेख किया है। यही बात आचार्य हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थ 'योगबिन्दु' में अन्य दर्शनों द्वारा बताई है। अविद्याकलेशकर्मादिर्यश्व भवकारणम्। __ तत् प्रधानमेवैतत् संज्ञाभेदमुपागतम् / / " अविद्या, कलेश, कर्म आदि भव की परम्परा है। उसे कोई प्रधान प्रकृति भी कहते हैं तो कोई अविधा कहते हैं, कोई उसे वासना कहते हैं। यह सभी नाम संज्ञा का भेद है। वास्तविक भेद नहीं है। अर्थात् जगत् में प्रत्येक संसारी जीव का चार गति में जन्म-मरण का चक्र चालू है। उसका मुख्य कारण मिथ्यात्व, अविरति, कषाय तथा अशुभ योग है। उसी कारण उसे भ्रमण करना पड़ता है। उसे ही अद्वैत मत वाले वेदान्ती अविधा कहते हैं। सांख्यदर्शन के उपदेशक कपिल उसे कलेश कहते हैं। जैन दर्शन के पुंज पुरुष उसे ही कर्म कहते हैं। उसी प्रकार सौगत अर्थात् बौद्ध उपासक उसे वासना कहते हैं। शैव दर्शनकार पाश कहते हैं। योग दर्शन के रचयिता पतंजलि ऋषि प्रकृति कहते हैं, "उसमें भी प्रधान अर्थात् मुख्य रूप से सभी के भिन्न-भिन्न नाम होने पर भी एक कार्य को करने वाले हैं। जैसे कि विचार, अविधा, अज्ञता जहाँ तक होती है, वहाँ तक संसार का बंधन है, अतः यह भी योग्य नाम है। 'कलेश' जीवों को आकुल-व्याकुल बनाने वाला होने से यह भी योग्य नाम है। जैन कर्म कहते हैं वह भी द्रव्य परमाणुओं का समुदाय जीवों के द्वारा शुभाशुभ अव्यवसायों से ग्रहण किया हुआ होने के कारण उदय समय में शुभाशुभ कर्म भोगे जाते हैं। उससे कर्म नाम भी युक्त है। बौद्ध वासना कहते हैं वह भी आत्मा के अध्यवसाय रूप में कर्म के हेतु हैं। उसी से कारण में कार्य का उपचार होने से वह भी योग्य है। शैव पाश कहते हैं-यह परमानंद का अनुभव करने की इच्छा वाले जीवों को संसार के बंधन में फंसा देते हैं तथा पुद्गल पदार्थ में अर्थात् सुख की भ्रमणा रूप पाश में बांध देते हैं। अतः वह भी यथार्थ नाम है। उसी प्रकार कोई माया कपट कहते हैं। यह माया जीवात्मा को अवस्तु में वस्तु का प्रदर्शन करती है। अतः माया नाम भी योग्य है। प्रकृति स्वभाव संसार में अवस्थित जीवात्मा का राग-द्वेषमय कर्म बंधन की योग्यता वालों की उस प्रकार की प्रवृत्ति करने का स्वभाव होता है। उससे 324 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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