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________________ समस्त विश्व कर्म सिद्धान्त की प्रक्रिया को स्वीकारे या नहीं स्वीकारे लेकिन सम्पूर्ण लोक और अनन्त जीव सबका सारा व्यवहार कर्म-सिद्धान्त के आधार पर ही चल रहा है। तभी तो जब लोकस्वरूप के चिन्तक एवं तत्त्वज्ञानियों के सामने जगत्-विचित्रता का प्रश्न आया तो उन्होंने सही समाधान करते हुए कहा-'कर्मजं लोक वैचित्र्यं' अर्थात् जीवमात्र में पाई जाने वाली विचित्रता और विषमता का कारण कर्म है। जीव-विज्ञान को यह विचित्रता कर्मजन्य है, कर्म के कारण है। भगवद्गीता 4 में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यही बात कही है। यह एक ध्रुव सत्य है कि कर्म एक ऐसी शक्ति तथा अपूर्व ऊर्जा है, जो व्यक्ति को प्रतिपल सक्रिय, क्रियाशील रखती है। जगत् में कोई भी व्यक्ति निष्क्रिय जीवन नहीं जी सकता है। प्रत्येक व्यक्ति कुछ क्रिया करता ही रहता है और इसी क्रियाशीलता की संप्रेरक शक्ति कर्म है। इसीलिए ही जैन दर्शनकारों ने कर्म सिद्धान्त को विशेष प्रिय बताया है एतो कम्मं च पंचविहं उक्खेवणमवक्खेण पसारणकुरुचणागमण। उत्क्षेपावक्षेपावाकुश्वनकं प्रसारणं गमनम्। पश्चविधं कर्मवेत्।।' उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्रसारण, आकुंचन और गमन-ये पांच प्रकार के कर्म न्याय दर्शन में प्रसिद्ध हैं। व्याकरण में कारक-भेद में कर्म का प्रयोग हुआ है कर्तुरिप्सिततमं कर्म। कर्ता क्रिया के द्वारा जिसे विशेष रूप से प्राप्त करना चाहता है, वह कर्म कहलाता है। “यथा स ग्रामं गच्छति" यहाँ कर्ता सः अर्थात् वह, गच्छति यानी जाना वह जाने की। क्रिया द्वारा ग्राम को प्राप्त करना चाहता है। अतः ग्राम कर्म है। लेकिन जैनागमों ने कर्म का एक विशिष्ट अर्थ किया गया है, जो इस प्रकार है-मन, वचन और काय आदि योगों का जो व्यापार, वह कर्म कहलाता है। स्थानांग की टीका 7 में भ्रमण आदि क्रियाओं को कर्म कहा है, जबकि सूत्रकृतांग 8 में संयम अनुष्ठान रूप क्रिया को कर्म कहा है। __ कर्म शब्द की निष्पत्ति 'कृ' धातु से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-'करना' कार्य, प्रवृत्ति या क्रिया। जीवन व्यवहार में जो भी कार्य किया जाता है, वह कर्म है। जैन दर्शन के अनुसार जब मन, वचन और काया के योग से संसारी जीव रागद्वेषयुक्त प्रकृति करता है, तब आत्मा सूक्ष्म पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है और उनके द्वारा विभिन्न आत्मिक संस्कारों को उत्पन्न करता है, वे कर्म हैं। कर्म वह स्वतन्त्र वस्तु भूत पदार्थ है, जो जीव की रागद्वेषात्मक क्रिया से आकृष्ट होकर आत्मा के साथ लग जाता है। आत्मा में चुम्बक की तरह अन्य पुद्गल परमाणुओं को अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति है और वह उन परमाणुओं को लोहे की तरह आकर्षित करती है। यद्यपि ये पुद्गल परमाणु भौतिक हैं, अजीव हैं तथापि जीव की राग-द्वेषात्मक मानसिक, वाचिक और कायिक शारीरिक क्रिया के द्वारा आकृष्ट होकर दूध और पानी की तरह आत्मा के साथ एकमेव हो जाते हैं। जीव के द्वारा कृत होने के कारण वह कर्म कहा जाता है। - कीरइ जिएण हेऊहिं जेणं तो भण्णए कम्म। अर्थात् जीव की क्रिया का हेतु कर्म है। सारांश यह है कि राग-द्वेष से युक्त संसारी जीव शुभ या अशुभ परिणति में रमण करता है तब कर्मरूपी पुद्गल उससे आकृष्ट होकर आत्मा के साथ चिपककर जो अच्छा-बुरा फल देते हैं, उन्हें कर्म कहते हैं। 323 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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