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________________ इस प्रकार की नयावलम्बि प्रबल चर्चा यह जैनशासन का भूषण है, दूषण नहीं। इसीलिए उपमीतिकार ने भी कहा है निर्नष्टममकारास्ते विवादं नय कुर्वते। अय कुर्युस्ततस्तेभ्यो दातव्यंवैकवाक्यता।।266 अर्थात् जिनका ममकार नष्टप्रायः हो गया है, वे कभी विवाद नहीं करते हैं। यदि ये विवाद करने लगे तो उनकी प्ररूपणाओं में अवश्य एकवाक्यता लाने का प्रयास करना चाहिए। सारांश, कहीं भी शास्त्रों के तात्पर्य को धूमिल नहीं करना चाहिए। अतः नयवाद भी नयगर्भित ही है, इसीलिए नयों का भी कोई एक ही विभाग नहीं है। अन्य-अन्य आचार्यों ने भिन्न-भिन्न स्थान में उनका भिन्न-भिन्न विभाग दिखाया है, जैसे-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द-ऐसा पांच नय का विभाग श्री उमास्वातिश्री ने कहा है। संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द-समभिरूढ़ एवं एवंभूत-ऐसा छः नयों का विभाग सम्मतिकार ने दिखाया है। आवश्यकादि में नैगमादि सात नय का विभाग है। तदुपरांत द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक, अर्थनय-शब्दनय, निश्चयनय-व्यवहारनय, ज्ञाननय-क्रियानय, शुद्धनय-अशुद्धनय इत्यादि अनेक प्रकार का नयविभाग उपलब्ध है। उपाध्याय यशोविजय ने नयरहस्य, नयप्रदीप, जैन तर्कपरिभाषा आदि ग्रंथों में सात नय का स्वरूप दिखाया है। . नय चिन्तन की एक पद्धति है। वह एक विचार है और विचार कभी सीमा में आबद्ध नहीं होते। सिद्धसेन ने स्पष्ट उद्घोषणा की थी-अनेकान्त अनेक नयों का समवाय है।267 नय की निष्पत्ति नय की तीन निष्पत्तियाँ हैं हेय का हान, उपादेय का उपादान और उपेक्षणीय की उपेक्षा। अनुयोगद्वार आवश्यक नियुक्ति आदि में ज्ञाननय और क्रियानय के माध्यम से सोदाहरण दर्शाया गया है। अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए। यह ज्ञानप्रधान उपदेश ज्ञाननय है। सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर श्री चारित्र और क्षमा आदि गुणों में स्थित है, साधु है, वह सर्वनयसम्मत होता है। जैन शासन में नयवाद के विकास की परम्परा अविच्छिन्न रूप से गतिशील है। समय-समय पर जैन आचार्यों की जागृत प्रज्ञा ने इनमें नये सन्दर्भ जोड़े हैं। भिन्न ग्रंथों की नय विवेचना और नयविकास में अहं भूमिका रही है-तत्त्वार्थभाष्य, आप्तमीमांसा, सन्मतितर्क प्रकरण, तत्त्वार्थवार्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, धवला, प्रमाणनयतत्वालोक, सर्वार्थसिद्धि, नयचक्र, द्रव्यानुयोगतर्कणा, श्रीभिक्षु-न्यायकर्णिका, जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, जैन न्याय का विकास, जैन तर्क परिभाषा, नयरहस्य, अनेकान्त व्यवस्था, नयप्रदीप आदि / 268 उपाध्याय यशोविजय ने अनेकान्त एवं नय के विषय में ज्ञानसार के अन्तिम अष्टक में नयज्ञान के फल का सुन्दर निरूपण इस प्रकार किया है-सर्वनयों के ज्ञाता को धर्मवाद द्वारा विपुल श्रेयस प्राप्त होता है जबकि नय से अनभिज्ञजन शुष्कवाद-विवाद में गिरकर विपरीत फल प्राप्त करते हैं। निश्चय और व्यवहार, ज्ञान एवं क्रिया आदि एक-एक पक्षों के विश्लेषण यानी आग्रह को छोड़कर शुद्ध भूमिका पर आरोहण करने वाले और अपने लक्ष्य के प्रति मूढ़ न रहने वाले तथा सर्वत्र पक्षपात से दूर रहने वाले, सभी नयों का आश्रय करने वाले, परमानंदमय होकर विजेता बनते हैं। सर्वनयों पर अवलम्बित ऐसा जिनमत, जिनके चित्त में परिणत हुआ और जो उनका सम्यक् प्रकाशन करते हैं, उनको पुनः-पुनः नमस्कार हो। 308 22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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