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________________ * जीव का व्यवहार नहीं चलता। व्यवहार नय भेद को महत्त्व देता है पर अभेद का निराकरण नहीं करता। यदि अभेद का सर्वथा निराकरण कर दे तो उसे व्यवहार नयाभास कहना होगा। इस नय का मुख्य प्रयोजन व्यवहार की सिद्धि है। वह अन्तिम विशेष का ग्रहण कर सकती है। व्यवहारगृहीत विशेष पर्यायों के रूप में नहीं होते अपितु द्रव्य के भेद के रूप में होते हैं। इसलिए व्यवहार का विषय भेदात्मक और विशेषात्मक होते हुए भी द्रव्यरूप है, न कि पर्यायरूप। यही कारण है कि द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों में से व्यवहार का समावेश द्रव्यार्थिक नय में किया गया है। व्यवहारनय को हम उपयोगितावादी दृष्टि कह सकते हैं। लौकिक अभिप्रायः समान उपचार बहुल विस्तृत अर्थ विषयक व्यवहारनय है। 4. ऋजुसूत्र नय यह वर्तमानपरक दृष्टि है। यह अतीत और भविष्य की वास्तविक सत्ता स्वीकार नहीं करती। अतीत की क्रिया नष्ट हो चुकी है। भविष्य अभी उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए न अतीतकालीन वस्तु अर्थक्रिया में समर्थ होती और न भविष्यकालीन वस्तु ही हमारे अभी काम की है। इसलिए वह वर्तमान में होने वाली अर्थपर्याय को ही अपना विषय बनाता है। भिक्षु न्यायकर्णिका में इसको परिभाषित करते हुए लिखा गया है-वर्तमानपर्यायग्राही ऋजुसूत्रः।। ज्ञाता का वह अभिप्राय जो केवल वर्तमान की पर्याय को ही ग्रहण करे, वह ऋजुसूत्र नय है। जैसे वर्तमान में सुख है। इस वाक्य में प्रत्युत्पन्नवर्ती सुख की ही मुख्यता है, उसके अधिकरणभूत जीव गौण हो जाता है। भेद अथवा पर्याय की विवक्षा से जो कथन है, यह ऋजुसूत्र नय का विषय है। जिस प्रकार संग्रह का विषय सामान्य अथवा अभेद है, उसी प्रकार ऋजुसूत्र का विषय पर्याय अथवा भेद है। यह नयभूत और भविष्य की उपेक्षा करते केवल वर्तमान का ग्रहण करता है। पर्याय की उपस्थिति वर्तमान काल में ही होती है। भूत और भविष्यकाल . .में द्रव्य रहता है, जैसे गते शोको न कर्तव्यो, भविष्यं नैव चिन्तयेत्। वर्तमानेन योगेन, वर्तन्ते हि विचक्षणाः।।।। इस नीतिकथित वचन अनुसार सुज्ञ जनों को भूत एवं भावी के सुख-दुःख का हर्ष-शोक वर्तमान में नहीं होता है किन्तु वह वर्तमान में ही प्रवर्तते हैं। जैसे भूतकाल का राजा वर्तमान में भिखारी हो सकता है। वर्तमान का भिखारी भविष्य में भूपति कता है, इसलिए वो रंक वर्तमान में राजा के सुख का अनुभव नहीं कर सकता है। अतीत अनागत के त्यागपूर्वक जो केवल वर्तमान का बोध कराता है, वह ऋजुसूत्र नय है।15 यह नय वर्तमान वस्तु के लिंग, वचन और निक्षेप की भिन्नता भी सामान्य रूप से ग्रहण करता है। यह नय स्वानुकूल कार्य प्रलय को ग्रहण करता है, परानुकूल को नहीं।।6 न्यायप्रदीप में ऋजुसूत्र नय की व्याख्या करते हुए कहा है कि वर्तमान पर्यायमात्र को विषय करने वाला ऋजुसूत्र नय है। नयचक्रसार में ऋजुसूत्रनय की व्याख्या करते हुए कहा है कि रिजुवर्तमानक्षणस्थायि पर्यायमात्र प्राधान्यतः सूत्र यति अभिप्रायः रिजुसूत्रः-ज्ञानोपयुक्त ज्ञानी, दर्शनोपयुक्त दर्शनी, कषायोपयुक्त कषायी, समतोपयुक्त सामायिकी। 298 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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