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________________ प्रायः पिता-पुत्र और सास-बहू के बीच संघर्ष होते रहते हैं। पिता जिस परिवेश में बड़ा हुआ, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभव प्रधान होती है और पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। यही स्थिति सास-बहू में होती है। इसमें जब तक सहिष्णु दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता है, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता।100 अनेकान्तवाद समस्याओं का महान् समाधान है। अनेकान्तवाद हर परिस्थिति, हर विचार के प्रत्येक पहलू पर विचार करने की उदार भावना को जन्म देता है। अनेकान्तवाद अन्य के विचारों को समझने का अवसर प्रदान करता है। अधिकार और कर्तव्य दोनों में भी सन्तुलन होना आवश्यक है। यदि व्यक्ति केवल अपने अधिकार का उपयोग करना चाहे, और कर्तव्य नहीं निभावे तो भी संघर्ष उत्पन्न होता है। उसी प्रकार परिवार में प्रेम से रहने के लिए, परिवार का पालन करने के लिए केवल बुद्धि की ही नहीं बल्कि हृदय की भी आवश्यकता है। अनेकान्तवाद बुद्धि और हृदय में गाड़ी के दो पहियों की तरह सन्तुलन बनाए रखता है। अन्य दर्शनकारों के मत से अनेकान्तवाद . भारतवर्ष में भिन्न-भिन्न अनेक दर्शन प्रवर्तमान हैं। इसमें नैयायिक, बौद्ध, सांख्य, वेदान्त, वैशेषिक, मीमांसक एवं चार्वाक दर्शन विशेष प्रसिद्ध हैं। ' नैयायिक-एक ही पदार्थ में नित्यत्व एवं अनित्यत्व दोनों विरुद्ध धर्मों को स्वीकार करते हैं, जैसे-घटाकाश एवं पटाकाश रूपी अनित्यता एवं आकाश रूपी नित्यता की सिद्धि होती है। बौद्ध-मेचक ज्ञान में नील, पीत आदि चित्रज्ञान मानते हैं अर्थात् श्यामवर्ण के ज्ञान में नील, पीत आदि परस्पर विरुद्ध होते हुए भी एक ही चित्र ज्ञानस्वरूप स्वीकार्य है। सांख्य-प्रकृति में प्रसाद, संतोष एवं दैन्य आदि अनेक विरुद्ध धर्मों को स्वीकार करते हैं। सत्व, 'रजस् एवं तमस् आदि पकृति के भिन्न गुण हैं। इस तरह परोक्ष नीति से भी सांख्यों ने स्याद्वाद को स्वीकार किया है। मीमांसक-प्रमाता, प्रमिति एवं प्रमेय का ज्ञान एक ही मानते हैं इसलिए मीमांसकों की भी अनेकान्तवाद की तरफ दृष्टि परिलक्षित होती है। - वेदान्त-कूटस्थ नित्य आत्मा को जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाएं प्राप्त होती हैं, ऐसा मानते हैं। यहाँ भी स्याद्वाद के ही दर्शन होते हैं। - वैशेषिक-द्रव्यरूप से घट नित्य है और पर्याय रूप से अनित्य है। इस तरह वो भी अनेकान्तवाद को मानते हैं, ऐसा सिद्ध होता है। इस तरह सार्वभौम के आलम्बन से सभी दर्शनकार अपने मन्तव्य की सुन्दर रक्षा करते हैं। किन्तु गौरव केवल अनेकान्तवाद को ही है, क्योंकि इसका मुख्य ध्येय सभी दर्शनों को समान भाव से देखकर समन्वय करना। जैसे सभी नदियों समुद्रों में मिलती हैं, वैसे ही सभी दर्शनों का समावेश अनेकान्तवाद में हो जाता है। इसलिए अनेकान्तवाद ने विश्व में सर्वोच्च, सर्वोत्तर स्थान प्राप्त किया है। नयों एवं सप्तभंगी में भी स्याद्वाद के दर्शन होते हैं। स्याद्वाद सिद्ध के प्राचीन प्रमाणों को देखते हैं तो भी अनेकान्तवाद के महत्त्व का पता चल जाता है, जो निम्न है 282 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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