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________________ थे, उन्हें आत्मा का परावभासित्व इष्ट नहीं था। जैन दर्शन ने इन दोनों के बीच समन्वय स्थापित किया। उनके अनुसार स्वात्मनि क्रिया में विरोध नहीं होता, क्योंकि जो बात अनुभव से सिद्ध है, उसमें विरोध नहीं होता। आत्मा स्व-प्रकाशक है, क्योंकि वह पदार्थों को जानता है, जो स्व-प्रकाशक नहीं होता, वह पर-प्रकाशक भी नहीं हो सकता, जैसे-घट। स्वप्रकाशत्व के साथ परप्रकाशत्व का कोई विरोध भी नहीं है। जैसे दीपक स्वयं प्रकाशित होता है, उसे प्रकाशित करने के लिए किसी दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती तथा साथ-साथ दीपक पदार्थों को भी प्रकाशित करता ही है। आत्मा को स्वप्रकाशी मानने से वह ज्ञेय बन जायेगी, ज्ञाता नहीं रहेगी, ऐसी शंका करना भी उचित नहीं। आत्मा ज्ञाता और ज्ञेय दोनों हो सकती है। आत्मा स्वयं को जानती है, इस अपेक्षा से ज्ञेय तथा पदार्थों को जानती है, इस अपेक्षा से ज्ञाता भी है। जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र की अपेक्षा पिता होता है और अपने पिता की अपेक्षा पुत्र होता ही है। इस प्रकार आत्मा एकान्ततः स्वावभासी या परावभासी ही है, इन दोनों एकान्तिक मतों का निरसन और आत्मा के स्वपरावभासी मतप्रमाता का दूसरा लक्षण है-परिणामित्व। जो वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त हो, वह परिणामी कहलाती है। आत्मा परिणामी है, इस तथ्य को स्वीकार करने से कूटस्थ नित्यता एवं एकान्त विनश्वरता से संबंध दोनों पक्षों का निराकरण हो जाता है। कूटस्थ नित्य से तात्पर्य है कि उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं है। यदि आत्मा को कूटस्थ नित्य मान लें तो सुख-दुःख, पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष आदि संभव नहीं हो सकते और यदि बौद्धों की तरह एकान्ततः क्षणिक मान लें तो फिर ऐसा भी मानना होगा कि व्यक्ति को अपने कृत कर्मों का फल नहीं मिलता, अकृत कर्मों का फल मिलता है, क्योंकि कर्म करने वाली आत्मा नष्ट हो चुकी है। इसके अतिरिक्त स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि ज्ञान भी अप्रमाण हो जायेंगे। आत्मा को परिणामी नित्य अर्थात् उत्पाद, व्यय, ध्रौव्ययुक्त मानने से सभी बातों का समन्वय सहज किया जा सकता है। चार निक्षेप का स्वरूप नय की तरह निक्षेप भी श्रुतप्रमाण के साथ विशेष रूप से संबंध रखता है। आगम ग्रंथों में पद, पद के नय एवं निक्षेप के द्वारा पदार्थों की विचारणा प्रस्तुत है। तत्त्व का निर्णय करने के लिए निक्षेप भी एक महत्त्वपूर्ण अंग है। किसी भी पदार्थ निरूपण प्रारम्भ सामान्य से उनके निर्दोष लक्षण कथन के द्वारा होता है, फिर उनमें अगर भेद हो तो उनका विस्तार किया जाता है, इसलिए सर्वप्रथम सभी भेदों में घटे, ऐसा सामान्य लक्षण कहते हुए उपाध्याय यशोविजय जैन तर्क परिभाषा में लिखते हैं 'प्रकरणा दिवशेना प्रतिपत्यादि व्यवच्छेदक यथास्थान विनियोगाय। शब्दार्थ रचना विशेषा निक्षेपाः।।156 प्रकरणादि के अनुरूप अप्रतिपति निराकरण करने में जो यथास्थान विनियोग, उस विनियोग के लिए शब्द एवं अर्थ की रचना विशेष करना जो निक्षेप है। ग्रंथकार स्वयं निक्षेप का फल आहरण से दिखाता है-मंगल आदि पदों के अर्थ में निक्षेप करने से नाममंगल आदि में उचित विनियोग हो सकता है, वो निक्षेप का फल है। मंगल पद के चार निक्षेप होते हैं * नाम मंगल-स्वयं मंगल न हो किन्तु जो पदार्थ या व्यक्ति का नाम मंगल रखने में आया हो तो वो पदार्थ था। व्यक्ति एवं उनके नाम को नाममंगल कहते हैं। 237 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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