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________________ अकखर सन्नी सम्म साईय खलु सपिज्जवसियं च। गमियं अंगपविडं सत वि ए ए सपडिवक्खा।।। अक्षरश्रुत, संज्ञीश्रुत, सम्यक्श्रुत, आदिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत, गमिकश्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत-इन सातों के प्रतिपक्ष भेदों सहित अनक्षरश्रुत, असंज्ञीश्रुत, मिथ्याश्रुत, अनादिश्रुत, अपर्यवसितश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगबाह्यश्रुत-ये चौदह भेद श्रुतज्ञान के हैं। ___ यह चौदह भेद विशेषावश्यक भाष्य" एवं जैन तर्कपरिभाषा+8 में मिलते हैं। श्रुतज्ञान के चौदह भेद के सिवाय बीस भेद भी कर्मग्रंथ गोम्मटसार आदि ग्रंथों में उल्लेखित हैं। पज्जायक्खरपदसंघादं पडिवत्तियाणि जोगं च, दुगवारपाडुंड च य पाहुड चं वत्थु पुव्वं च। तेसिं च समासेहिं च विस विहं वा हु होदि सुदणाणं, आवरणस्स विभेदा तत्तिभेता हवंति ति।।" . 1. पर्यायश्रुत, 2. पर्यायसमासश्रुत, 3. अक्षरश्रुत, 4. अक्षरसमासश्रुत, 5. संघातश्रुत, 6. संघातसमासश्रुत, 7. प्रतिप्रतिश्रुत, 8. प्रतिप्रति समासश्रुत, 9. अनुयोग श्रुत, 10. अनुयोग समास श्रुत, 11. प्राभृत प्राभृत श्रुत, 12. प्राभृत प्राभृत समास श्रुत, 13. प्राभृत श्रुत, 14. प्राभृत समास श्रुत, 15. पदश्रुत, 16. पदसमासश्रुत, 17. वस्तुश्रुत, 18. वस्तुसमास श्रुत, 19. पूर्व श्रुत, 20. पूर्व समास श्रुत। इस प्रकार श्रुतज्ञान के 14 एवं 20 प्रभेदों की विवेचना की गई है। अवधिज्ञान यह प्रत्यक्षज्ञान है। इसके दो प्रकार स्थानांग सूत्र की टीका में समुल्लिखित हैं "अर्वाधिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं। तद तथा भवप्रत्ययिकं चैव क्षायोपशमिकं चैव।"50 अवधिज्ञान दो प्रकार का है-भवप्रत्यक्ष एवं क्षायोपशमिक निमित्तक। नारदों एवं देवताओं को ही अवधिज्ञान होता है, वह भवप्रत्यक्ष कहा जाता है। नारक और देवों के अवधिज्ञान में उस भव में उत्पन्न होना ही कारण माना है, जैसे कि-पक्षियों में आकाश एवं गमन करना स्वभाव से उस भव में जन्म लेने से ही आ जाता है। उसके लिए शिक्षा एवं तप कारण नहीं है। उसी प्रकार जो जीव नरक एवं देवगति में उत्पन्न होते हैं, उनको अवधिज्ञान स्वतः ही प्राप्त होता है। लेकिन इतना जरूरत है कि सभी देवताओं के देखने का मर्यादा क्षेत्र समान नहीं होता। क्षायोपशमिक अवधिज्ञान 6 प्रकार का है। यह भेद अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से है। इसके स्वामी मनुष्य और तिर्यंच हैं। अर्थात् अवधिज्ञान मनुष्यों और तिर्यंचों को यथायोग्य क्षयोपशम होने पर होता है। अवधिज्ञान भव प्रत्ययिक आर्यपरामिक प्रत्ययिक अनुगामी अननुगामी वर्धमान हीयमान प्रतिपति अप्रतिपति 207 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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