________________ 4. चक्षुरेन्द्रिय से वर्ण का ज्ञान, 5. श्रवणेन्द्रिय से शब्द का ज्ञान। ये पाँचों इन्द्रिय के निमित्त से होने वाले ज्ञान हैं। मन की प्रवृत्तियों अथवा विचारों को यहाँ समूहरूप ज्ञान को अनिन्द्रिय निमित्तक कहते हैं।" अब स्वरूप एवं विषय की अपेक्षा से भेदों का विश्लेषण करते हैं। ऊपर जो इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तक मतिज्ञान बताया, उसमें प्रत्येक के चार-चार भेद हैं-अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा। अवग्रहादि में अवग्रह दो प्रकार का है-व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन के द्वारा नहीं होता है। वह केवल स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र-इन चारों इन्द्रियों के द्वारा ही हुआ करता है। अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा-ये पाँचों इन्द्रिय और मन के द्वारा होते हैं। 4x6=24 एवं व्यंजनावग्रह के 4 भेद इस तरह मतिज्ञान के 28 भेद होते हैं। मतिज्ञान के 340 भेद 4 व्यंजनावग्रह-श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय 6 अर्थावग्रह-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मन 6 ईहा 6 अपाय 6 धारणा 28 मतिज्ञान के 28 भेद इन 28 भेदों को बहु, अल्प, बहुविध, अल्पविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिश्रित, निश्रित, निश्चित, अनिश्चित, ध्रुव और अध्रुव-इन बारह भेदों से गुणा करने पर श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के 28x12=336 भेद होते हैं। श्रुतनिश्रित मतिज्ञान-336 (चार प्रकार की) अश्रुत निश्रित मतिज्ञान इस प्रकार बुद्धि के भेदों का वर्णन नन्दि हारिभद्रीय वृत्ति," जैन तर्कभाषा, तत्त्वार्थसूत्र, कर्मग्रंथ आदि में मिलता है। श्रुतज्ञान श्रुतज्ञान का विषय मतिज्ञान की अपेक्षा महान् है। श्रुतज्ञान दो प्रकार का है-अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य। इसमें अंगबाह्य के अनेक भेद हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं। अंग बाह्य में, जैसे कि-सामायिक, चतुर्विंशति, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, प्रत्याख्यान, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, निशीथसूत्र, महानिशीथसूत्र, चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, द्वीपसागर, प्रज्ञप्ति इत्यादि इसी प्रकार के ऋषियों के द्वारा कहे हुए और भी अनेक भेद हैं। अंगप्रविष्ट के बारह भेद हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशांग, अन्तकृतदशांग, अनुतरोपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। श्रुतज्ञान के भेद वक्ता की विशेषता की अपेक्षा से है। श्रुतज्ञान के चौदह एवं बीस भेद शास्त्रों में बताये हैं। 206 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org